Monday, July 20, 2020

आत्मज्ञान

एक दिन आनंद और तथागत भिक्षा के लिए एक गाँव जा रहे थे । वह एक झरने से गुजरे जहाँ हाल ही में कुछ पशु नहाकर निकले थे । तथागत और आनंद थोड़े ही आगे निकले और एक पेड़ की छाँव में बैठ गये ।
तथागत बोले – “ आनंद ! पीछे वाले झरने से जरा पानी ले आओ । मुझे बड़ी जोर की प्यास लगी है ।” आनंद ने कमण्डलु उठाया और पानी लेने चल दिया । आनंद जब झरने के पास पहुँचा तो देखा कि उसमें बिलकुल गन्दा पानी आ रहा है । आनंद वापस आया और बोला – “ भगवान् ! झरने का पानी तो बिलकुल गन्दा है । आप आज्ञा दे तो मैं नदी से ले आऊ ?”

तथागत ने कहा – “ नहीं ! तुम झरने से ही लाओ । अब ठीक हो गया होगा ।” आनंद फिर से झरने पर गया । इस बार पानी थोड़ा ठीक था लेकिन फिर भी पीने योग्य नहीं था । अतः आनंद फिर से खाली हाथ ही लौट आया और बोला – “ भगवान् ! पानी तो अब भी गन्दा है । मैं नदी से ले आता हूँ ।”

तथागत बोले – “ तुम थक गये होगे, थोड़ी देर विश्राम कर लो । फिर ले आना ”  थोड़ी देर बाद तथागत ने फिरसे उसे झरने पर पानी लेने भेजा । वह जैसे ही झरने पर पहुंचा । इस बार पानी एकदम स्वच्छ था । उसने अपना कमण्डल भरा और ख़ुशी – ख़ुशी चल दिया ।

तथागत ने पूछा – “ अब पानी कैसा है ? आनंद !” उसने कहा – “ अब तो स्वच्छ है, भगवान्, लेकिन ये चमत्कार कैसे हुआ ?”

तथागत बोले – “ आनंद ! ये कोई चमत्कार नहीं, सब्र का फल है । जानवरों ने पानी में हलचल की जिससे नीचे की धुल और मिट्टी ऊपर आ गई और पानी गन्दा हो गया । जब पहली बार तुम झरने पर गये, उस समय धुल मिट्टी पानी में घुली होने से पानी गन्दा दिखाई दे रहा था । जब तीसरी बार गये तब तक मिट्टी नीचे सतह में जम गई और पानी स्वच्छ हो गया । यही तुम्हारे उस प्रश्न का उत्तर है, जो तुम मुझसे अक्सर पूछते रहते हो ।”

आनंद बोला – “ कैसे भगवान् ?”

तथागत बोले – “ आनंद ! हमारा मन भी उसी झरने की तरह है । जिसमें प्रतिदिन हर पल काम , क्रोध ,  मोह , माया , वासना , के कुविचारों के कितने ही पशु उछलकूद मचाते है । इन कुविचारों और कुसंस्कारों के कारण तुम्हारा मन अस्थिर और अपवित्र होते रहता हैं । ( ध्यान - साधना )  से हम उन कुविचारों और कुसंस्कारों के पशुओं को मन से बाहर करते है और ( ध्यान - साधना ) से मन को स्थिर, शांत और पवित्र करते है । जब तक मन स्थिर, शांत और पवित्र नहीं हो जाता, ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती । इसलिए आनंद ! जब तुम्हारा मन स्थिर होकर समाधिस्थ हो जायेगा । तब तुम्हें स्वतः आत्मज्ञान की उपलब्धि हो जाएगी ।