Tuesday, January 5, 2021

पीड़ा में समता

देवदत्त द्वारा नियुक्त राज सैनिक जब भगवान को न मार सके तब श्रमण देवदत्त ने स्वयं भगवान की हत्या करने की ठान ली। सोचा किसी दूसरे के भरोसे रहना ठीक नहीं, क्यों न मैं स्वयं बुद्ध को मारूं?

ऐसा सोचकर वह उपयुक्त अवसर की तलाश करने लगा। एक दिन उसने देखा कि भगवान गृद्धकूट पर्वत की छाया में टहल रहे हैं। उन्हें मनचाहा अवसर प्राप्त हो गया। वह पर्वत के ऊपर चढ़ गया। देवदत्त
महाबलशाली था। उसके शरीर में पांच हाथियों का बल था। उन्होंने एक विशाल शिलाखंड भगवान की ओर लुढ़काया। उसके रास्ते में एक दूसरी शिला पड़ जाने के कारण पहली शिला रुक गयी। पर उसमें से
एक टुकड़ा टूट कर नीचे गया, जो शास्ता के पैर में लगा। उसकी चोट से भगवान के पैर से खून बहने लगा। भगवान ने ऊपर पर्वत पर देखा। वहां देवदत्त को पाकर यह कहा- "अरे मूर्ख! तूने पाप ही तो
कमाया, जो द्वेषयुक्त चित्त से तथागत पर प्रहार करके रक्त बहाया।"
शिला पपड़ी की चोट से भगवान को असह्य पीड़ा होने लगी। मंच पर बैठाकर भिक्षु उन्हें जीवक के आम्रवन में ले गये । जीवक ने घाव पर औषधि लगा कर पट्टी बांध दी और कहा- मैं नगर में एक रोगी देखने जा रहा हूं। मेरे आने तक यह पट्टी बंधी रहे। नगर से लौटते समय जीवक को देर हो गयी। नगर द्वार बंद हो गया, इसलिए वह निर्धारित समय पर शास्ता के पास नहीं आ सका। उसे भगवान के व्रण और पीड़ा की चिंता हुयी। जीवक के मन की बात को जानकर भगवान ने आनंद को बुला कर पट्टी खुलवा ली।
भोर होते ही राजवैद्य भगवान के पास आये और पूछा- भंते! पट्टी बंधी रहने से भगवान को रात भर जलन और पीड़ा हुई होगी। भगवान बोले- जीवक! तथागत की जलन और पीड़ा बोधिमण्ड पर ही समाप्त हो गयी।
ऐसा कहकर उन्होंने यह गाथा कही-
“गतद्धिनो विसोकस्स, विप्पमुत्तस्स सब्बधि ।
सब्बगन्थप्पहीनस्स, परिडाहो न विज्जति ॥"
धम्मपद ९०, अरहन्तवग्गो
- "जिसकी यात्रा पूरी हो गयी है, जो शोकरहित है, सर्वथा विमुक्त है, जिसकी सभी ग्रंथियां कट गयी हैं, उसके लिए (कायिक और चैतसिक) संताप (नाम की कोई चीज़) नहीं है।"
पुस्तक: वैदेहीपुत्र आजातशत्रु
विपश्यना विशोधन विन्यास

आयुष्मान गिरिमानन्द को दस संज्ञाओं का ज्ञान (अङ्गुत्तरनिकाय (३.१०.६०), गिरिमानन्दसुत्त)

 एक समय भगवान सावत्थी में अनाथपिण्डिक के जेतवन आराम में विहार कर रहे थे। उस समय आयुष्मान गिरिमानन्द रोगी, दुःखी और बड़े बीमार थे। तब आयुष्मान आनन्द भगवान के पास गये।

पास जाकर भगवान का अभिवादन कर एक ओर बैठ गये। एक ओर बैठे हुए आयुष्मान आनन्द ने भगवान को यह कहा -
“भंते! आयुष्मान गिरिमानन्द रोगी, दुःखी और बड़े बीमार हैं। अच्छा हो भंते! भगवान आयुष्मान गिरिमानन्द के पास चलने की अनुकंपा करें।"
“आनन्द! यदि तू गिरिमानन्द भिक्षु के पास जाकर दस संज्ञाओं को कहेगा तो संभव है कि गिरिमानन्द भिक्षु का दस संज्ञाओं को सुनकर वह रोग एकदम शांत हो जाय।"
“कौन-सी दस?"
“अनित्य-संज्ञा, अनात्म-संज्ञा, अशुभ-संज्ञा, आदीनव-संज्ञा, प्रहाण-संज्ञा, विराग-संज्ञा, निरोध-संज्ञा, सारे लोक में अनभिरति संज्ञा, सभी संस्कारों के प्रति अनिच्छा-संज्ञा तथा आनापान-स्मृति।"
“आनन्द! अनित्य-संज्ञा क्या है?
“आनन्द! यहां भिक्षु अरण्य में, वृक्ष के तले या शून्यागार में गया हुआ इस प्रकार विचार करता है - रूप अनित्य है, वेदना अनित्य है, संज्ञा अनित्य है, संस्कार अनित्य हैं, विज्ञान अनित्य है। ऐसे इन पांचों उपादान-स्कंधों में अनित्यानुपश्यी होकर विहरता है। आनन्द! इसे अनित्य-संज्ञा कहते हैं।
“आनन्द! अनात्म-संज्ञा क्या है?
“आनन्द! यहां भिक्षु अरण्य में, वृक्ष के तले या शून्यागार में गया हुआ इस प्रकार विचार करता है - चक्षु अनात्म है, रूप अनात्म हैं, श्रोत्र अनात्म है, शब्द अनात्म हैं, घ्राण अनात्म है, गंध अनात्म हैं, जिह्वा अनात्म है, रस अनात्म हैं, काय अनात्म है, स्पर्श अनात्म हैं, मन अनात्म है, धर्म अनात्म हैं। ऐसे इन छ: भीतरी और बाहरी आयतनों में अनात्मानुपश्यी होकर विहरता है।
आनन्द! इसे अनात्म-संज्ञा कहते हैं।
“आनन्द! अशुभ-संज्ञा क्या है?
“आनन्द! भिक्षु इसी काया को पांव के तलवे से ऊपर की ओर और केश वाले सिर से नीचे की ओर, त्वचा-पर्यंत, नाना प्रकार की गंदगियों से भरा हुआ जान विवेचन करता है - 'इस काया में है - केश, लाम, नख, दांत, त्वचा, मांस, नसें, हड्डी, मज्जा, गुर्दा, हृदय, यकृत, फुफ्फुसावरण, प्लीहा, फेफड़े, आंत, आंत्रयोजनी, आमाशय, पाखाना, पित्त, कफ, पीव, लहू, पसीना, चर्बी, आंसू, वसा, लार, नाक की सीढ, लसिका (शरीर के जोड़ों को चिकना रखने वाला तरल पदार्थ) (और) मूत्र।' इस प्रकार काया में अशुभानुपश्यी होकर विहरता है। आनन्द! इसे अशुभ-संज्ञा कहते हैं।
“आनन्द! आदीनव-संज्ञा क्या है?
“आनन्द! यहां भिक्षु अरण्य में, वृक्ष के तले या शून्यागार में गया हुआ इस प्रकार विचार करता है - यह शरीर बहुत दुःखदायी और दोषों से पूर्ण है, क्योंकि इस शरीर में नाना प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं। जैसे कि - चक्षुरोग, श्रोत्ररोग, घ्राणरोग, जिह्वारोग, काय-रोग, शीर्ष-रोग, कर्ण-रोग, मुख-रोग, दांत-रोग, ओष्ठ-रोग, क्षय(=कास), श्वास (=सांस) संबंधी रोग,
पीनस (=नाक का रोग), दाह (जलन), ज्वर, उदर-रोग, मूर्छा, अतिसार, शूल, हैजा, कोढ़, फोड़ा, किलास (=एक प्रकार का चर्म रोग), शोथ, मिरगी, दाद, खुजली, काछ, नखों से खुजलाने की जगह का रोग, चकत्ते, खून गिरने का पित्त, मधु-मेह, कंधे के रोग, फुसियां, भगंदर, पित्त से उत्पन्न रोग, श्लेष्मा (=कफ) से उत्पन्न रोग, वायु से उत्पन्न रोग (=वात
रोग), सन्निपात रोग, ऋतु के कारण उत्पन्न रोग, विषम दिनचर्या से उत्पन्न रोग, उपद्रवजन्य-रोग, कर्म-फल के कारण उत्पन्न रोग, जाड़ा, गर्मी, भूख, प्यास, पाखाना, पेशाब । ऐसे इस काया में आदीनवानुपश्यी होकर विहरता है।
आनन्द! इसे आदीनव-संज्ञा कहते हैं।
“आनन्द! प्रहाण-संज्ञा क्या है?
“आनन्द! कोई भिक्षु उत्पन्न कामवितर्क को, उत्पन्न व्यापादवितर्क को, उत्पन्न विहिंसावितर्क को, उत्पन्न पापमय अकुशलधर्मों को स्वीकार नहीं करता है, त्याग देता है, दूर हटा देता है, नष्ट कर देता है, सदा के लिए लुप्त कर देता है।
आनन्द! इसे प्रहाण-संज्ञा कहते हैं।
“आनन्द! विराग-संज्ञा क्या है?
"आनन्द। यहां भिक्षु अरण्य में, वृक्ष के तले या शून्यागार में गया हुआ इस प्रकार विचार करता है - 'सभी संस्कारों का शमन तथा सभी उपधियों (आसक्तियों) का त्याग, तृष्णा का क्षय, विराग और निर्वाण ही शांत एवं सर्वोत्तम पद है।
आनन्द! इसे विराग-संज्ञा कहते है।
"आनन्द ! निरोध-संज्ञा क्या है?
“आनन्द ! यहां भिक्षु अरण्य में, वृक्ष के तले या शून्यागार में गया हुआ इस प्रकार विचार करता है - 'सभी संस्कारों का शमन तथा सभी उपधियों (आसक्तियों) का त्याग, तृष्णा का क्षय, निरोध और निर्वाण ही शांत एवं सर्वोत्तम पद है।
आनन्द! इसे निरोध-संज्ञा कहते हैं।
“आनन्द! सारे लोक में अनभिरति-संज्ञा क्या है?
“आनन्द! जो भिक्षु लोक में ग्राह्य विषयों को, जो कि चित्त के अधिष्ठान, अभिनिवेश एवं अनुशय के कारण बन सकते हैं, छोड़ते हुए, उनको न ग्रहण करता हुआ धर्मसाधनारत रहता है - इसे सारे लोक में अनभिरति-संज्ञा कहते हैं।
“आनन्द! सारे संस्कारों में अनिच्छा-संज्ञा क्या है?
“आनन्द! यहां भिक्षु सभी संस्कारों से घृणा करता है, लज्जा करता है, जुगुप्सा करता है।
आनन्द! इसे सारे संस्कारों में अनिच्छा-संज्ञा कहते हैं।
“आनन्द! आनापान-स्मृति क्या है ?
“आनन्द! यहां भिक्षु अरण्य में, वृक्ष के तले या शून्यागार में जाकर, शरीर को सीधा रख, मुख के ऊपरी भाग पर स्मृति प्रतिष्ठापित कर, पालथी मार कर बैठता है। वह स्मृतिमान हो सांस लेता है, स्मृतिमान हो सांस छोड़ता है। वह लंबी सांस लेते हुए भली प्रकार जानता है कि मैं लंबी सांस लेता हूं, लंबी सांस छोड़ते हुए भली प्रकार जानता है कि मैं लंबी सांस छोड़ता हूं। वह छोटी सांस लेते हुए भली प्रकार जानता है कि मैं छोटी सांस लेता हूं, छोटी सांस छोड़ते हुए भली प्रकार जानता है कि मैं छोटी सांस
छोड़ता हूं। वह सीखता है कि मैं सारी काया को अनुभव करते हुए सांस लूंगा, मैं सारी काया को अनुभव करते हुए सांस छोडूंगा।
वह सीखता है कि मैं काया के संस्कार को प्रश्रब्ध (शांत) कर सांस लूंगा, मैं काया के संस्कार को प्रश्रब्ध (शांत) कर सांस छोडूंगा।
वह सीखता है 'प्रीति को अनुभव करते हुए सांस लूंगा', 'प्रीति को अनुभव करते हुए सांस छोडूंगा।'
वह सीखता है ‘सुख को अनुभव करते हुए सांस लूंगा', 'सुख को अनुभव करते हुए सांस छोडूंगा।'
वह सीखता है 'चित्त के संस्कार को अनुभव करते हुए सांस लूंगा', 'चित्त के संस्कार को अनुभव करते हुए सांस छोडूंगा।'
वह सीखता है 'चित्त के संस्कार को प्रश्रब्ध (शांत) कर सांस लूंगा', 'चित्त के संस्कार को प्रश्रब्ध (शांत) कर सांस छोडूंगा।'
वह सीखता है 'चित्त को अनुभव करते हुए सांस लूंगा', 'चित्त को अनुभव करते हुए सांस छोडूंगा।'
वह सीखता है 'चित्त को आनंदित करते हुए सांस लूंगा', 'चित्त को आनंदित करते हुए सांस छोडूंगा।'
वह सीखता है 'चित्त को एकाग्र करते हुए सांस लूंगा', 'चित्त को एकाग्र करते हुए सांस छोडूंगा।'
वह सीखता है 'चित्त को विमोचित करते हुए सांस लूंगा', 'चित्त विमोचित करते हुए सांस छोडूंगा।'
वह सीखता है ‘अनित्य की अनुपश्यना करते हुए सांस लूंगा', 'अनित्य की अनुपश्यना करते हुए सांस छोडूंगा।'
वह सीखता है 'विराग की अनुपश्यना करते हुए सांस लूंगा', 'विराग की अनुपश्यना करते सांस छोडूंगा।'
वह सीखता है 'निरोध की अनुपश्यना करते हुए सांस लूंगा', 'निरोध की अनुपश्यना करते हुए सांस छोडूंगा।'
वह सीखता है ‘परित्याग की अनुपश्यना करते हुए सांस लूंगा', 'परित्याग की अनुपश्यना करते हुए सांस छोडूंगा।'
आनन्द! इसे आनापान-स्मृति कहते हैं।
“आनन्द! यदि तू गिरिमानन्द भिक्षु के पास जाकर इन दस संज्ञाओं को कहेगा तो संभव है कि गिरिमानन्द भिक्षु का इन दस संज्ञाओं को सुन कर वह रोग एकदम शांत हो जाय।"
तब आयुष्मान आनन्द भगवान के पास इन दस संज्ञाओं को अधिगृहीत कर आयुष्मान गिरिमानन्द के पास गये। पास जाकर आयुष्मान गिरिमानन्द को इन दस संज्ञाओं को कहा। तब इन दस संज्ञाओं को सुनकर आयुष्मान गिरिमानन्द का वह रोग एकदम शांत हो गया और आयुष्मान गिरिमानन्द उस रोग से शीघ्र उठ खड़े हुए तथा आयुष्मान गिरिमानन्द का
वह रोग दूर हो गया।
-अङ्गुत्तरनिकाय (३.१०.६०), गिरिमानन्दसुत्त
पुस्तक : भगवान बुद्ध के उपस्थापक "आनन्द"
विपश्यना विशोधन विन्यास