Sunday, July 19, 2020

धर्म क्या है ? - सत्यनारायण गोयन्का

    आओ , आज  की इस धर्म सभा में पहले तो यह समझें कि धर्म क्या हैं ? और फिर यह समझें कि हम धर्म क्यों धारण करें ?  और फिर यह भी समझें कि  धर्म धारण करें तो कैसे धारण करें  ?
   इन तीन दिनों की विख्यान माला में इन्हीं विषयों का प्रतिपादन किया जायगा । तो आज समझें - धर्म क्या हैं  ?
  
    सारे भारत का बहुत बड़ा दुर्भाग्य रहा कि पिछले १५०० वर्ष या यूँ कहें दो हजार वर्षों से धर्म शब्द का जो सही रूप था , सही अर्थ था , उसे खो बैठे । धर्म का सही अर्थ ही नहीं मालूम होगा तो उसे धारण कैसे करेंगे ? अब तो धर्म शब्द के साथ बैसाखीयां लग गयीं । मानो धर्म को कोई सहारा चाहिए । इस समुदाय का अलग धर्म, इस समुदाय का अलग धर्म , तो किसी को कहा बौद्ध धर्म ,  किसी को हिन्दू  धर्म , जैन धर्म , सिख धर्म , ईसाई धर्म इत्यादि ।

    धर्म को बैसाखी की जरूरत नहीं होती । धर्म को किसी अन्य के साहारे की जरूरत नहीं होती ।
धर्म तो स्वयं सहारा देने वाला हैं, उसको किस सहारे की जरूरत हैं ? लेकिन जब नासमझी से धर्म शब्द के साथ ये बैसाखीयां (crutches ) जोड़ दी जाती हैं तो बैसाखीयां प्रमुख हो जाती हैं , धर्म बेचारा गौण हो जाता हैं । धर्म नेपथ्य में , अंधेरे में चला जाता है । दुर्भाग्य से यही होने लगा ।

    पुरातन भारत में धर्म कहते थे - धारण करें सो धर्म । धारेती' ति धम्मं । क्या धारण करें ? हमारा चित्त जिस किसी चित्त वृत्ति को धारण करेगा , उस समय वह उस चित्त का धर्म हैं । अपना स्वभाव धारण करता है । अपना लक्षण धारण करता है । जो चित्त वृत्ति मैंने अपने चित्त पर इस समय धारण की उसका स्वाभाव क्या है ? यानी, धर्म का दूसरा अर्थ - स्वभाव , प्रकृति , निसर्ग , ऋत ; बहुत पुराना अर्थ था ।' स्वभाव' आज भी कभी - कभी इसी अर्थ में प्रयोग में आ जाता है , जब हम कहते हैं कि अग्नि का धर्म हैं जलना और जलाना माने इसका स्वभाव है ।अगर वह जलती नहीं और उसकी लपेट में जो आ जाय उसे जलाती नहीं तो वह अग्नि नहीं , कुछ और हैं । ऐसे ही कह सकते हैं बर्फ का स्वभाव है शीतल होना और शीतल करना । अगर वह स्वयं शीतल नहीं होती और उसके समीप जो आये उसको शीतल नहीं करती तो बर्फ नहीं , कुछ और हैं । 

    आज भी कभी - कभी कहते हैं कि सारे प्राणी मरणधर्मा हैं , व्याधीधर्मा हैं , जराधर्मा हैं - यह स्वभाव है । इस  अर्थ में धर्म का जब प्रयोग किया जाता हैं तब धर्म समझ में आने लगता है । मैंने अपने चित्त में जो चित्त वृत्ति धारण की , उसका कैसा धर्म । मैंने अपने चित्त में मैल जगाया , क्रोध , द्वेष , दुर्भावना , ईर्ष्या , अहंकार कोई भी  विकार जगाया , इनका क्या स्वभाव है ? 
    हमारे देश के मुनियों , ऋषियों , महापुरुषों , सद्गरुओं , अरंहतो , बुद्धों  ने , सम्बुद्धों ने यही खोज की  कि इस समय चित्त में जो जागा , उसका क्या स्वभाव है ।
    
     क्रोध , द्वेष , दुर्भावना , ईर्ष्या , अहंकार  कोई भी विकार जागे , बहुत जलन पैदा होती हैं । बहुत व्याकुलता पैदा करता है ।यह स्वभाव है उसका । मुझे क्रोध भी आये और भीतर व्याकुलता नहीं हो तो वह क्रोध नहीं है , कब और हैं । क्रोध , द्वेष , दुर्भावना आदि जागी हैं तो व्याकुलता उसके साथ - साथ आयेगी ही इसे सहजात कहा , यानी , यह  दुःख एक  साथ जन्मता हैं ।

    जिस पात्र में हमने जलते हुए अंगारे रखे , वे पहले उस पात्र  को जलाते हैं , तपाते हैं और फिर आसपास के वातावरण को संतापित करने लगते हैं । जो भी उस वातावरण में आयगा तपन महसूस करेगा । ऐसे ही जिस पात्र में बर्फ रखें , उसका पहला काम या स्वभाव हैं पहले उस पात्र को शीतलता प्रदान करेगी और फिर आसपास के वातावरण में शीतलता विस्तारीत करेगी । यह स्वभाव है ।

    हमारे देश के ऋषियों , मुनियों ने यह बात देख ली कि जब - जब मनुष्य अपनी नासमझी में, नासमझी ही हैं भाई , कोई समझ करके अपने आप को क्यों जलायेगा ? कोई समझता हुआ अपने को क्यों व्याकुल करेगा ? नासमझ हैं इसलिए अपने मानस में क्रोध , द्वेष , ईर्ष्या , अहंकार या अन्य कोई विकार जगाया तो जलने लगा । क्योंकि हमने पात्र मे जलते हुए अंगारे डाल दिये और अंगारों का तो यही स्वभाव है । उसकी जगह यदि उसमें बर्फ रखे , क्या बर्फ रखें ? मैत्री , करुणा, सद्भावना जैसी चित्त वृत्तियां डालें तो देखेंगे भीतर ही भीतर इतनी शांति ,इतनी शीतलता ! क्योंकि वह उसका स्वभाव है । 

    सभी सद्वृत्तियों का यही स्वभाव है कि वे हमें भीतर बहुत शांति प्रदान करेगी , बहुत शीतलता प्रदान करेगी और फिर आसपास के सारे वातावरण में शांति और शीतलता भर देंगे ।

   जब आदमी क्रोध जगाता हैं तब उस क्रोध  का पहला शिकार वह स्वयं होता हैं । औरों को तो पीछे व्याकुल करेगा , पहले खुद व्याकुल हो जायगा और फिर व्याकुलता बिखरने लगेगी । जब मैं क्रोध जगाऊं तो उस समय मेरे संपर्क में जो आये , वही बेचारा व्याकुल हो जायगा । सारे वातावरण को तनाव से भर दूंगा । मैंने जो चित्तवृत्ति जगाई हैं उसका यह स्वभाव है , धर्म हैं , वह अपना धर्म प्रकट करेगी ।  क्योंकि ऐसी चित्तवृत्ति जगायी हैं जो व्याकुलता पैदा करने वाली हैं ।मेरे लिए भी व्याकुलता , औरों के लिए भी व्याकुलता । यह होश जाग जाय तो जानबूझ कर कौन अपने आप को व्याकुल करेगा ?

    एक नन्हा - बच्चा , जो अबोध है , उसे अभी होश नहीं है । अपनी नासमझी में वह जलते हुए अंगारों पर हाथ रख देता है, हाथ जलता हैं तो हाथ पीछे खींचता हैं , इतना तो जान गया कि इससे हाथ जलता हैं , हाथ पीछे खींचता हैं । कभी नासमझी में फिर हाथ रख दिया , फिर जला , फिर हाथ पीछे कर लिया । एक बार हुआ , दो बार हुआ , पांच बार हुआ , दस बार हुआ , अब वह समझ गया, ये अंगारे  हैं इनको नहीं छूना चाहिए । यह आग हैं इसे नहीं छूना चाहिये। 

   एक नन्हा सा बच्चा भी समझ जाता है और हमारी नासमझी देखो ! अंगारे भरे जा रहे हैं भीतर , अपने को जलाये जा रहे हैं , स्वयं जल रहे हैं , औरों को जला रहे हैं लेकिन उससे छुटकारा पाने की कोशिश नहीं करते । इसलिए नहीं करते कि जब हमारे भीतर क्रोध , द्वेष , दुर्भावना , अहंकार, ईर्ष्या या कोई भी विकार जागता हैं तब उस  समय जिस व्यक्ति पर , जिस घटना पर जागा, हमारे मानस में वही घूमता रहता है  । किसी पर मुझे क्रोध आया क्योंकि उसने मेरा अपमान किया । कोई ऐसा काम किया जो मेरे लिए अनचाहा हैं , या मेरे मनचाहें काम में कोई बाधा पैदा कर दी तो मुझे क्रोध आया । तब मैं कहू्ंगा - स्वाभाविक है , क्रोध तो आयगा ही , और क्या होगा ? 

    अरे, क्या स्वाभाविक है भाई ! तू करने क्या लगा ? तू क्रोध तो उस पर पैदा कर रहा है , जिसने तेरे काम में कोई अडचन पैदा की , तेरी इच्छाओं की पूर्ति होने में कोई बाधा पैदा की, और जला रहा है अपने आप को । क्योंकि देख नहीं पाये कि क्रोध जगाया तो मेरे भीतर क्या होने लगा ? यह देखना ही भूल गये । जब किसी दूसरे व्यक्ति पर , दूसरी घटना या स्थिति पर क्रोध जगाया , तब बार - बार मन उसी पर जाता है । उसने मेरा इतना अपमान किया , ऐसा कहा , यह बात ऐसी हो गयी .....। मानस बहिर्मुखी हैं , बाहर की सच्चाई की ओर वह झुका हुआ हैं । मेरे भीतर क्या होने लगा, यह देखना ही बंद कर दिया ।
    भारत में इस देखने की विद्या को  विपश्यना  कहते थे ।यह बहुत प्राचीन , बहुत पुरानी विद्या है - अपने आप को देखना है । अपने भीतर क्या हो रहा है, वह ज्यादा जरूरी है । बाहर क्या हो रहा है , इससे हम अनजान नहीं रहेंगे , उसको भी जानना है ; पर उससे ज्यादा जरूरी यह जानना कि अमुक घटना घटने से , अमुक व्यक्ति या अमुक स्थिति के संपर्क में आने से , मेरे भीतर क्या होने लगा ? 

   जिस दिन अच्छी तरह से यह देखना आ जाता है तब धर्म समझ में आने लगता है । वह धर्म जिसके साथ कोई बैसाखीयां नहीं लगीं । शुद्ध धर्म समझ में आने लगता है ।  अरे भाई , स्वभाव है न, मैंने मन को विकारों से विकृत किया तो इन विकारों का स्वभाव है - व्याकुल ही बनायेंगे । और देखने लगा तो एक बार देखेगा , दो बार देखेगा , दस बार देखेगा । बाद में हर घटना से काट करके अपने भीतर देखने लगेगा । अभी तो कहता है कि बाहर जो घटना घटी  इसकी वजह से मेरे मन में क्रोध , द्वेष , दुर्भावना या जो भी विकार जागा, उसका आलंबन बाहर का हैं । उसे एक बार दुर करके देखें - मेरे भीतर क्या होने लगा ? मैंने जो यह क्रोध की प्रतिक्रिया की, तब क्या होने लगा ? अरे जलने लगा न ! बड़ा व्याकुल होने लगा रे !  ऐसा एक बार, दो बार , दस बार देखेगा, स्वभाव पलटना शुरू हो जायगा । तो धर्म धारण करने लगा । अब वह समझ गया कि धर्म क्या हैं ?  हम विकोरों से विकृत न हो , यह धर्म हैं । ऐसे ही हम विकारों के बजाय अपने मानस में सद्गुण  पैदा करें , मन में मैत्री , करुणा, सद्भावना जगायें तब देखेंगे भीतर इतना सुख , इतनी शांति , इतनी शीतलता ! बाहर के किसी व्यक्ति पर करुणा , मैत्री जगायी, अरे , इतना सुख , इतनी शांति , इतनी शीतलता ! 

    अब अनुभव से जानने लगा तब धर्म सही माने में धर्म हो गया । धारेती ' ति धम्मं । अब धारण कर रह हैं । समझ रहा है - अग्नि को धारण करुंगा तो जलुंगा ही । दुनिया की कोई शक्ति मुझे नहीं बचा सकती और बर्फ धारण करुंगा शीतल होऊंगा ही , दुनिया की कोई बाधा उसमें व्यवधान नहीं डाल सकती । प्रकृति का नियम है । यहीं ऋत, यही विश्व का विधान , कुदरत का कानून है जो सब पर लागू होता है । अपने को चाहे जिस नाम से पुकारे , कोई फर्क नहीं पड़ता । कोई भी आदमी जलते हुए अंगारों पर हाथ रखे तो अंगारे इस बात को नहीं देखते कि यह आदमी अपने को हिन्दू कहता है कि बौद्ध..... उससे कोई लेन - देन नहीं । अग्नि का स्वभाव है, वह जलायगी ही । बर्फ पर हाथ रखा तो शीतल करेगी ही । जिस दिन धर्म का यह सार्वजनिन स्वरूप प्रकट होने लगता है , उस दिन बहुत बड़ा लोक कल्याण होना शुरू हो जाता हैं । और इसे भूल कर बाहर - बाहर के आलंबनों को महत्व देना शुरू कर दिया , तब अपने आप को सुधारने का काम बंद कर दिया । धर्म से दुर जाने लगे । ऊपर - ऊपर से यह भ्रम होता हैं कि मैं बहुत धार्मिक हूं , लेकिन जब होश जागे तब देखेगा कि कहा धार्मिक हूं । मैं तो जब देखो तब विकार जगाता हूं । मुझे धर्म का जरा - सा ज्ञान नहीं ,  मुझे धर्म का जरा - सा होश नहीं , मै धर्म धारण नहीं करता । मैं अपने मन को मैला करते रहता हूं , व्याकुल होते रहता हूं तथा औरों को व्याकुल करते रहता हूं ।तब मैं धार्मिक कैसे हुआ ? अब सोचेगा , क्योंकि धर्म की सही बात समझ में आने लगी ।

    हर समाज की अपनी - अपनी परंपरायें चली आ रही हैं । लोग अपने - अपने तीज  - त्योहार मनाते हैं , व्रत - उपवास करते हैं , कर्म - कांड करते हैं , पर्व - त्योहार मनाते हैं , मनाएं । अपनी - अपनी वेश - भूषा, दार्शनिक मान्यता ..., ये सब अलग - अलग हैं । इसलिए अलग - अलग समाज हैं , अलग - अलग सम्प्रादाय हैं , समूह हैं , समुदाय हैं , कोई बुरी बात नहीं । परंतु समझें कि इनसे धर्म का कोई लेन - देन नहीं । ये सब तो सामाजिक आमोद - प्रमोद के लिए हैं , करने चाहिए , लेकिन धर्म के साथ इसे जोड़ देंगे तो धर्म से दूर होते चले जायेंगे ।    

-विश्व विपश्यना आचार्य 
 श्री. सत्यनारायण गोयन्का

http://www.vridhamma.org/en1999-06

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https://www.dhamma.org/en/courses/search

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