Monday, July 27, 2020

सद्गृहस्थ के चार लौकिक सुख

भगवान ने कहा
1- गृहस्थ धन-उपार्जन करे परंतु अपने परिश्रम से, ईमानदारीपूर्वक, न्याय-नीतिपूर्वक, धर्मपूर्वक, बिना किसी को धोखा दिये।

अगर उपार्जन में उसने कभी कोई श्रम नही किया अथवा जिसे उसने अनीतिपूर्ण ढंग से हासिल किया तो वह सम्पदा उसके सही सुख का कारण नही बन सकती। ऐसा व्यक्ति गृहस्थ के इस प्रथम सुख से वंचित रह जाता है।

2-दूसरा लोकीय सुख है- अपनी मेहनत और ईमानदारी से कमाई हुई सम्पदा का उचित उपभोग और संविभाजन यानी दान द्वारा सदुपयोग।

यदि कोई गृहस्थ अपनी कमाई हुई सम्पदा का लोभ और कंजूसीवश कोई उपयोग नही करता, न अपने लिये, न औरो के लिये तो ऐसा व्यक्ति सद्गृहस्थ के दूसरे सुख से वंचित रह जाता है।
यदि कोई गृहस्थ नासमझीवश अथवा असावधानीवश अपनी कमाई हुई सम्पदा किसी अन्य व्यक्ति के प्रभुत्व में दे देता है, और परिणामस्वरूप आवश्यकता पड़ने पर स्वयं अपने परिवार के भरण-पोषण के लिये अथवा लोक कल्याणहित दान देने के लिये भी उसमे से कुछ नही प्राप्त कर सकता तो वह भी गृहस्थ जीवन के इस दूसरे सुख से वंचित रह जाता है।

3-सद्गृहस्थ का तीसरा लोकीय सुख है- ऋण मुक्ति का सुख।

यदि कोई गृहस्थ नासमझी से अथवा परिस्थितियों से मजबूर होकर ऋण ले लेता है और ऋण की अदायगी नही कर पाता तो गृहस्थ जीवन के तीसरे सुख से वंचित रह जाता है। उऋण रहने का अपना सुख है। ऋणमुक्त होकर ही कोई यह सुख भोग सकता है।

4-सद्गृहस्थ का चौथा लोकीय सुख है- शील पालन।
बड़ा सुख है शील पालन में।
कोई व्यक्ति नासमझी या असावधानी के कारण दुराचारी हो जाता है, और हिंसा, चोरी, व्यभिचार, झूठ या नशा सेवन में से किसी एक या एक से अधिक का सहारा लेकर अपना शील नष्ट कर लेता है तो वह शील पालन के इस अतुल सुख से वंचित रह जाता है।

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