Sunday, May 31, 2020

उद्बबोधन - पत्र

(भारत आकर बसे परिवार के अनेक शिवरोंन्मुख विपस्सी साधकों को लिखा गया एक धर्मपत्र ), रंगून, 4-2-1969.
प्रिय साधक एवं साधिकायो!
धर्मं धारण करो!
साधना में कोई कठिनाई हुई हो तो उससे घबराना नहीं चाहिए । संस्कारों का मेल छंटने में कठिनाई तो होती ही है, फोड़े की मवाद निकलने की तरह उसे धेर्यपूर्वक सह लेने में ही साधना की सिद्धि है । यह पत्र पहुंचने तक जो शिविर में बैठे ही हों, उनके लाभार्थ विपश्यना पर कुछ कहू ।
यह जो सिर से पांव तक सारे शरीर में , अंग-प्नत्यंग में, तुम्हें किसी न किसी संवेदना की अनुभूति हो रहीं है और इस अनुभूति को तुम इसके अनित्य रूप में देख-पहचान रहै हो - यहीं विपश्यना है । जितनी देर इस अनित्यता का दर्शन कर रहे हो, उतनी देर सत्य के साथ हो l सत्य बडा शक्तिशाली है । जहाँ सत्य है वहाँ विद्या का बल है, अविद्या का क्षय है । जहाँ सत्य है वहीं ज्ञान है, बोधि है, प्रकाश है, निर्वाण है । और जहाँ ये सब है वहां अज्ञानता, मूढता, अंधकार और मोह कैसे रह सकते हैं भला? राग और द्वेष कैसे रह सकत्ते है भला? और ये ही तो चित्त के मैल हैं । ये ही फोडे है, ये ही फोडे की पीप है । इनके निकल जाने में ही चित्त की शांति है, चित्त की विशुद्धि है । विपश्यना का मार्ग विशुद्धि का मार्ग है, जहाँ चित की अशुद्धियां दूर होती है । विपश्यना का मार्ग निर्वाण का मार्ग है, जहाँ राग, द्वेष और मोह की अग्नियों का निर्वाण होता है, यानी,वे बुझती है। इनके बुझने का नाम ही परम शांति है । विपश्यना हमें इसी परम शांति की ले जाती है। जितनी-जितनी आग बुझ गयी, उतनी-उतनी शांति हुई । जितना-जितना मैल छंट गया, उतनी-उतनी विशुद्धि हुई । इसलिए साधना के लिए यह जो अनमोल अवसर मिला है इसका पूरा लाभ उठाना चाहिए ।
सदृगुरु ने हमें साबुन दिया है, पानी दिया है और चित्त रूपी मैला कपडा हमारे पास है । अब इस साबुन-पानी का प्रयोग करके चित्त का मैल निकालने का काम हमारा है। हम काम ही नहीं करेंगे तो मैल कैसे छंटेगा और जितना काम करेगे उतना ही तो छंटेगा । और फिर मैल अधिक होगा तो सारा मैल छंटेने में समय लगेगा और कम होगा तो काम जल्द हो जायगा। सबका मैल एक जैसा नहीं है और एक जितना भी नहीं है। किसी का कैसा है, किसी का कैसा । किसी का कितना है, किसी का कितना । इसलिए हर एक साधक को अपने-अपने मैल साफ क?रने पर ही ध्यान रखना चाहिए, औरों की और ध्यान नहीं देना चाहिए । परिश्रम करके जितना मैल छांट लोगे, उतना हल्के हो जाओगे । मैल छांटने के लिए ही तो विपश्यना है । और विपश्यना कया है!
प्रतिक्षण सचेत रहो, जागरुक रहो, सचेष्ट रहो, सावधान रहो और देखते रहो कि जो कुछ अनुभव हो रहा है, यह प्रकृति का अनित्य स्वभाव ही अनुभव हो रहा है । इस इंद्रिय जगत के खेल में कहीं कुछ भी स्थायी नहीं है, ध्रूव नहीं है, नित्य नहीं है। सभी कुछ अनित्य है, क्षणभंगुर है, अध्रूव है, अशाश्वत है और जो अनित्य है, क्षणभंगुर है यह सुखदायी कैसे हो सकता है? वह तो सचमुच दुखस्वरूप है l ऐसे अनित्य एवं दुखमय तन और मन के प्रति मैं और मेरे' का अहंभाव रखना नितांत मूर्खता है । यह तो अनात्म है । इस तरह अनित्य, दुख: और अनात्म का साक्षात्कार करते हुए उस इन्द्रियातीत अवस्था तक पहुँचना है जो निर्वाण की अवस्था है; जो नित्य, धुव् और शाश्वत है । परंतु उस नित्य, ध्रुव और शाश्वत अवस्था की कामना-कल्पना नहीं करनी है। ऐसा करने लग जाओगे तो विपश्यना छुट जायगी। अंत: विपश्यना में लगे रहो, अनित्य के ही दर्शन करते रहे । जो मार्ग बताया है उस पर दृढ़तापूर्वक आरूढ रहो, भटक मत जाओं ।
कल्याण निश्चित है, मंगल निश्चित है, स्वस्ति निश्चित है ।
आचार्य श्री स.ना. गोयन्का

ब्रह्मविहार


🌻 (1)मैत्री ब्रह्मविहार

यानि प्राणी दृश्य हों या अदृश्य, समीप के हों या दूर के, छोटे हों या बड़े, मनुष्य हों या मनुष्येतर; सभी प्राणियो के प्रति मंगल मैत्री का भाव।

उनके सुखी, स्वस्थ और दुःख मुक्त होने की, बन्धन मुक्त होने की मंगल कामना।

🌷 (2)करुणा ब्रह्मविहार

यानि किसी भी प्राणी को दुखी देखकर उसके प्रति करुणा जागे।

🌺 (3)मुदिता ब्रह्मविहार

यानि किसी भी प्राणी को सुखी देखकर, मुदित देखकर, उसके प्रति ईर्ष्या न जगाकर, उसके मोद में भागीदार बने।अपने मन को मुदिता के भाव से भरे।

🍁 (4)उपेक्षा ब्रह्मविहार

यानि किसी के द्वारा दुर्व्यवहार किये जाने पर भी, उसके प्रति द्वेष न जगाकर चित्त की समता कायम रखते हुए, उपेक्षा का जीवन जीयें।

🌸सद्ग्रहस्थ इन चारो ब्रह्मविहारो का अभ्यास करते हुए अपना उत्तम मंगल साध लेता है।

Saturday, May 30, 2020

How to Walk, How to eat(By Pujya Guruji)


In a one month course with Sayaji U Ba Khin in Burma, I experienced a very deep stage of bhanga, in which my entire body seemed to have dissolved into a mass of vibrations constantly arising and passing away.
Even if by chance I happened to look at someone, I saw only the outline of that person and within it a kind of blinking or oscillation.
🌹One day during this course my teacher said to me, "Come, Goenka, I shall teach you how to walk."
Now What was this? I was not a baby crawling on all fours; I was a man of mature years!
Sayaji explained, "walk as you do normally, neither quickly nor slowly. As you walk be aware of each movement of your body, and also be aware of what is happening within you."
I had been practising that in ten day couses, but it was different now. I tried it and found that while walking I could experience the flow of vibrations, the subtle reality within.
At a superficial level I was aware of my walking, and at a deeper level I was aware of the unceasing process of change within myself-- just a mass of atoms moving about, rather than a solid body.
💐"Now come, "said Sayaji, I shall teach you how to eat."
By this time I had understood that, though I was not an infant to be spoon-fed, there was something I needed to learn.
We went to the dining room and a tray of food was placed before me, each item neatly arranged in a separate dish.
Make small peaces of all the food, and put it in a bowl, said Sayaji.
Now mix it all together- solid or liquid, sweet or sour, combine it all. This is the way that monks are supposed to eat I did as he said and mixed all the food together in a bowl.
Now remain in a deep bhanga, said Sayaji. Keep your eyes closed and continue. Take a morsel of food with your fingers, and feel sensations. I did this, and as I touched the food I felt strong vibrations in my fingertips.
"Move your hands to your mouth feeling sensations."
I did so, feeling strong vibrations. "Place the food in your mouth and feel sensations." I did so, feeling vibrations on my lips, my tongue and gums.
"Chew the food and swallow it feeling sensations." I did so, feeling vibrations throughout my mouth and throat.
The taste of the food became immaterial. Instead I experienced it only as vibrations entering the vibrations of my body.
🌸Having finished the meal in this special Vipassana way, I was asked to take rest. I went and lay down on my bed. For quite some time I kept feeling distinct movement and vibration in the stomach and intestines.
After that course all my food preferences disappeared. I had been very fond of some of the more spicy Indian preparations Now I eat whatever is placed before me, but if there is a choice my hand goes automatically to the simpler dish.
I had indeed learned how to eat: not to satisfy cravings but to provide the nourishment this body needs to carry on its task.
Thanks to Sayagyi, Thanks to Dhamma.
🙏🏻🙏🏻🙏🏻
Source: Sayagyi U Ba Khin Journal: A Collection Commemorating the Teaching of Sayagyi U Ba Khin

धम्मपद यमकवग्गो

श्रावस्ती
चक्खुपाल (थेर)
मनोपुब्वङ्गमा धम्मा-मनोसेट्ठा मनोमया ।
मनसा चे पदुट्ठेन-भासति वा करोति वा ।
ततो न दुक्खमन्वेति-चक्कं"व वहतो पदं ।।
मनको धर्म हो जुनसुकै काममा पनि अगुवा हुनु, औ यो मन मुख्य भएर जताततै पुगेको हुन्छ । त्यसकारण अशुद्ध मन भएर कसैले बोल्यो वा गर्यो भने बयलको पछि पछि गाडाको पांग्रा आए झैं दुःख पछि लागेर आउँछ ।।१।।
श्रावस्ती
मट्टकुण्डली
मनोपुब्वङ्गमा धम्मा- मनोसेट्ठा मनोमया ।
मनसा चे पसन्नेन-भासति वा करोति वा ।
ततो नं सुखमन्वेति-छाया' व अनपायिनी ।।
मनको धर्म-जुनसुकै काममा पनि अगुवा हुनु, औ यो मन मुख्य भएर जताततै पुगेको हुन्छ । त्यसकारण शुद्ध मन लिएर सैले बोल्यो वा गर्यो भने आफ्नो पीछा न छोड्ने छायाँ आए झैं सुख पछि पछि लागेर आउँछ ।।२।।
श्रावस्ती, जेतवन
थुल्लतिस्स थेर
अक्कोच्छि मं अवधि मं-अजिनि मं अहासि मे ।
ये च तं उपनय्हन्ति-वेरं तेसं न सम्मति ।।
'मलाई गाली गर्यो' 'मलाई पिट्यो' 'मलाई हर्राईदियो' औ 'मेरो लगिदियो' इत्यादि भनेर जसले आफ्नो मनमा बराबर विचार गर्छ, त्यसको मनमा कहिले पनि वैरभाव शान्त हुनेछैन ।।३।।
अक्कोच्छि मं अवधि मं-अजिनि मं अहासि मे ।
ये तं न उपनय्हन्ति-वेरं तेसूपसम्मति ।।
'मलाई गाली गर्यो' 'मलाई पिट्यो' 'मलाई हर्राईदियो' औ 'मेरो लगिदियो' इत्यादि भनेर जसले आफ्नो मनमा बराबर विचार गर्दैन, त्यसको मनमा वैरभाव शान्त हुन्छ ।।४।।
श्रावस्ती, जेतवन
काली यक्षिणी
नहि वेरेन वेरानि-सम्मन्तीध कुदाचनं ।
अवेरेन च सम्मन्ति-एस धम्मो सनन्तनो ।
रीसले वैरभाव शान्त हुने छैन, प्रेमभावले मात्र वैरभाव शान्त हुन सक्छ, यही सनातनदेखि चलिआएको धर्म हो ।।५।।
श्रावस्ती, जेतवन
कोसम्बिक भिक्षु
परे च न विजानन्ति-मय'मेत्थ यमामसे ।
ये च तत्थ विजानन्ति-ततो सम्मन्ति मेधगा ।।
मूर्खले मात्र हामीले एकदिन अवश्य मर्नु पर्छ भनी विचार गर्दैन, 'हामी मर्ने छौं' भनी विचार गर्ने बित्तिकै कलह शान्त हुन्छ ।।६।।
श्रावस्ती, जेतवन
चुल्लकाल महाकाल
सुभानुपस्सिं विहरन्तं इन्द्रियेसु असंवुतं ।
भोजनम्हि च अमत्तञ्ञुं-कुसीतं हीनवीरियं
तं वे पसहति मारो-वातो रुक्खं'व दुब्वलं ।।
इन्द्रिय संयम नगरी राम्रो देख्ने, भोजनमा मात्रा नजान्ने, वीर्यहीन हुने यस्तालाई, बतासले दुर्वल रुख ढाले झैं मारले बिताउँछ ।।७।।
असुभानुपस्सिं विहरन्तं-इन्द्रियेसु सुसंबुतं ।
भोजनम्हि च मत्तञ्ञुं-सद्धं आरद्धवीरियं ।
तं वे नप्पसहति मारो-वातो सेलं'व पब्वतं ।।
इन्द्रिय संयम गरी राम्रो नदेख्ने, भोजनमा मात्रा ज्ञान राख्ने र श्रद्धा वीर्य कायम राखेका यस्तालाई पर्वतको ढुङ्गा बतासले हल्लाउन नसके झैं मारले डगाउन सक्तैन ।।८।।
श्रावस्ती, जेतवन
देवदत्त
अनिक्कसाबो कासावं-यो वत्थं परिदहेस्सति ।
अपेतो दमसच्चेन-न सो कासावम'रहति ।।
इन्द्रिय दमन नगरी सत्यज्ञानबाट दूर भई आफनो मनलाई स्वच्छ नराख्नेलाई गेरुवावस्त्र सुहाउँदैन ।।९।।
१०
यो च वन्तकसाव'स्स-सीलेसु सुसमाहितो ।
उपेतो दमसच्चेन-स वे कासावम'रहति ।।
क्लेशलाई दूरगरी आफनो मन स्वच्छ राखी शीलवान भई इन्द्रिय दमन गरेर सत्यज्ञानमा बस्नेलाई गेरुवावस्त्र सुहाउँछ ।।१०।।
११
राजगृह, वेणुवन
अग्रश्रावक
असारे सारमतिनो-सारे चा'सारदस्सिनो ।
ते सारं ना'धिगच्छन्ति-मिच्छासड्ढप्प गोचरा ।।
असारलाई सार, सारलाई असार ठान्ने यस्तो मिथ्यादृष्टि हुने व्यक्तिलाई सार पदार्थको लाभ हुँदैन ।।११।।
१२
सारञ्च सारतो ञत्वा-असारञ्च असारतो ।
ते सारं अधिगच्छन्ति-सम्मासड्ढप्प गोचरा ।।
सारलाई सार, असारलाई असार देखेर सम्यग्दृष्टि हुने यस्ता व्यक्तिलाई सार पदार्थको लाभ हुन्छ ।।१२।।
१३
श्रावस्ती, जेतवन
नन्दस्थवीर
यथा'गारं दुच्छन्नं वुट्ठी समतिविज्झति ।
एवं अभावितं चित्तं-रागो समतिविज्झति ।।
नराम्रोसित छाएको छानाबाट पानी चुहे झैं राम्रोसँग नबाँधेको चित्तमा राग चुहिन्छ ।।१३।।
१४
यथा'गारं सुच्छन्नं वुट्ठी न समतिविज्झति ।
एवं सुभावितं. चित्तं रागो न समतिविज्झति ।।
जस्तो राम्रोसँग छाएको छानाबाट पानी चुहिँदैन त्यस्तै शुद्ध चित्तमा राग चुहिँदैन ।।१४।।
१५
राजगृह, वेणुवन
चुन्द सूकरिक
इध सोचति पेच्च सोचति
पापकारी उभयत्थ सोचति ।
सो सोचति सो विहञ्ञति
दिस्वा कम्मकिलिट्ठम'त्तनो ।।
पापी व्यक्तिलाई इहलोक परलोक दुवै लोकमा शोक हुन्छ, आफूले गरेको खराब कामलाई देखेर आफै आफ दुःखी र पीडित हुन्छ ।।१५।।
१६
श्रावस्ती, जेतवन
धम्मिक उपासक
इध मोदति पेच्च मोदति ।
कतपुञ्ञो उभयत्थ मोदति ।
सो मोदति सो पमोदति
दिस्वा कम्मविसुद्धि'मत्तनो ।।
पुण्यवान् व्यक्ति इहलोक परलोक दुवै लोकमा सुखी हुन्छ, आफूले गरेको राम्रो कामलाई देखेर आफै सुखी हुन्छ, प्रमुदित हुन्छ ।।१६।।
१७
श्रावस्ती, जेतवन
देवदत्त
इध तप्पति पेच्च तप्पति
पापकारी उभयत्थ तप्पति ।
पापं मे कतन्ति तप्पति
भीय्यो तप्पति दुग्गतिं गतो ।।
पापी व्यक्तिलाई यहाँ पनि वहाँ पनि दुबै लोकमा ताप हुन्छ, मेलै पाप गरे भन्ने विचारले मनमा सन्ताप हुन्छ, दुर्गतिमा पुगेर उसलाई झन बढी ताप हुन्छ ।।१७।।
१८
श्रावस्ती, जेतवन
सुमनादेवी
इध नन्दति पेच्च नन्दति
कतपुञ्ञो उभयत्थ नन्दति ।
पुञ्ञं मे कतन्ति नन्दति
भीय्यो नन्दति सुग्गतिं गतो ।।
पुण्यवान् व्यक्तिलाई इहलोक परलोक दुवैमा आनन्दको अनुभव हुन्छ, मैलेपुण्य गरे भनी आनन्दित हुन्छ, परलोकमा पुगेर यहाँभन्दा पनि धेरै आनन्द प्राप्ति हुन्छ ।।१८।।
१९
श्रावस्ती, जेतवन
दुर्इ जना साथी
बहुम्पि चे सहितं भासमानो
न तक्करो होति नरो पमत्तो ।
गोपो व गावो गणयं परेसं
न भागवा सामञ्ञस्स होति ।।
जस्तो अर्काको गाई चराउने गोठालाले दूध प्राप्त गर्न सक्तैन, त्यस्तै धेरै धर्मको कुरा गर्न जानेर पनि तदनुसार आचरण नगर्नेलाई श्रमणत्व फल प्राप्त हुन सक्तैन ।।१९।।
२०
अप्पम्पि चे सहितं भासमानो
धम्मस्स होति अनुधम्मचारी ।
रागञ्च दोसञ्च पहाय मोहं
सम्मप्पजानो सुविमुत्तचित्तो ।
अनुपादियानो इध वा हुरं वा
स भागवा सामञ्ञस्स होति ।।
अलिकता मात्र धर्मको कुरा गर्न सक्ने भएता पनि धर्मानुसार आचरण गर्ने, राग, द्वेष र मोहलाई हर्टाई राम्रो धर्मावबोध भएर आफ्नो चित्तलाई क्लेशबाट हर्टाई, इहलोक र परलोकको चिन्ता नगर्नेलाई श्रमणत्व फल प्राप्तहुनसक्तछ ।।२०।

मरणानुस्मृति की साधना - आ. श्री स.ना. गोयन्का

मरणानुस्मृति की साधना-
यानि बार-बार मृत्यु की स्मृति बनाये रखने की साधना।
मृतक की स्मृति नही बल्कि मृत्यु की स्मृति।मृत्यु तो अवश्यम्भावी है।और कुछ टल भी सके पर मृत्यु नही टल सकती, देर-सबेर आने ही वाली है।
कब आ जाए यह भी निश्चित नही।
🍁अतः मरणानुस्मृति की साधना करता हुआ साधक यह चिंतन-मनन करे कि ' मुझे भी हर समय जाने की तैयारी रखनी चाहिये।
मै अपनी विपश्यना का अभ्यास मंद न पड़ने दूँ ताकि जब कभी मृत्यु आये, विपश्यना के होश में ही देह त्यागूँ, जिससे की अगला जीवन भी धर्ममय, विपश्यनामय ही मिले।

🌷किसी की मृत्यु हमारे भीतर ज्ञान जगावे, पर यह ज्ञान शमशान ज्ञान बनकर न रह जावे।सचमुच धर्म संवेग जागे। इसलिये बार-बार मरणानुस्मृति की साधना करनी चाहिये।समस्त शरीर और चित्तस्कन्ध कितना नश्वर है, कितना भंगुर है, किस प्रकार प्रतिक्षण उत्पाद-व्यय स्वभाव वाला है

🌷मृत्यु आने का किंचित भी भय न जागे, बल्कि मृत्यु की तैयारी की उमंग जागे।न जाने कितने जीवनों में किस किस प्रकार की मृत्यु आयी। परंतु इस बार तो मनुष्य जीवन मिला है, और मनुष्य जीवन में भी कल्याणकारिणी, मुक्तिदायिनी साधना मिली है। इसे पुष्ट करके इस बार की मृत्यु को अधिक कल्याणकारी बनाएंगे।
अंतिम सांस विपश्यना के अनित्य बोध में ही छोड़ेंगे।

🌻यह निश्चय दृढ़ होता जाय और इस निश्चय को सफलीभूत बनाने के लिये दैनिक विपश्यना साधना अधिक समय तक और अधिक गंभीरतापूर्वक करने लगे।
गृहस्थ जीवन की अत्यंत अनिवार्य जिम्मेदारियों को निभाने के लिये जितना समय लगाना पड़े वह अवश्य लगावें, लेकिन बाकी बचा हुआ सारा समय विपश्यना की पुष्टि में ही लगावें।

🌼आलस्य में, प्रमाद में, निकम्मे वाद-विवाद में, निरर्थक गप्पों में जरा भी समय न जाने दें।
जीवन के जितने दिन बचे हैं उनका सदुपयोग हो।
वर्तमान भी सुधरे, भविष्य भी सुधरे, लोक भी सुधरे, परलोक भी सुधरे।