Saturday, May 30, 2020

मरणानुस्मृति की साधना - आ. श्री स.ना. गोयन्का

मरणानुस्मृति की साधना-
यानि बार-बार मृत्यु की स्मृति बनाये रखने की साधना।
मृतक की स्मृति नही बल्कि मृत्यु की स्मृति।मृत्यु तो अवश्यम्भावी है।और कुछ टल भी सके पर मृत्यु नही टल सकती, देर-सबेर आने ही वाली है।
कब आ जाए यह भी निश्चित नही।
🍁अतः मरणानुस्मृति की साधना करता हुआ साधक यह चिंतन-मनन करे कि ' मुझे भी हर समय जाने की तैयारी रखनी चाहिये।
मै अपनी विपश्यना का अभ्यास मंद न पड़ने दूँ ताकि जब कभी मृत्यु आये, विपश्यना के होश में ही देह त्यागूँ, जिससे की अगला जीवन भी धर्ममय, विपश्यनामय ही मिले।

🌷किसी की मृत्यु हमारे भीतर ज्ञान जगावे, पर यह ज्ञान शमशान ज्ञान बनकर न रह जावे।सचमुच धर्म संवेग जागे। इसलिये बार-बार मरणानुस्मृति की साधना करनी चाहिये।समस्त शरीर और चित्तस्कन्ध कितना नश्वर है, कितना भंगुर है, किस प्रकार प्रतिक्षण उत्पाद-व्यय स्वभाव वाला है

🌷मृत्यु आने का किंचित भी भय न जागे, बल्कि मृत्यु की तैयारी की उमंग जागे।न जाने कितने जीवनों में किस किस प्रकार की मृत्यु आयी। परंतु इस बार तो मनुष्य जीवन मिला है, और मनुष्य जीवन में भी कल्याणकारिणी, मुक्तिदायिनी साधना मिली है। इसे पुष्ट करके इस बार की मृत्यु को अधिक कल्याणकारी बनाएंगे।
अंतिम सांस विपश्यना के अनित्य बोध में ही छोड़ेंगे।

🌻यह निश्चय दृढ़ होता जाय और इस निश्चय को सफलीभूत बनाने के लिये दैनिक विपश्यना साधना अधिक समय तक और अधिक गंभीरतापूर्वक करने लगे।
गृहस्थ जीवन की अत्यंत अनिवार्य जिम्मेदारियों को निभाने के लिये जितना समय लगाना पड़े वह अवश्य लगावें, लेकिन बाकी बचा हुआ सारा समय विपश्यना की पुष्टि में ही लगावें।

🌼आलस्य में, प्रमाद में, निकम्मे वाद-विवाद में, निरर्थक गप्पों में जरा भी समय न जाने दें।
जीवन के जितने दिन बचे हैं उनका सदुपयोग हो।
वर्तमान भी सुधरे, भविष्य भी सुधरे, लोक भी सुधरे, परलोक भी सुधरे।

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