Monday, July 27, 2020

सद्गृहस्थ के चार लौकिक सुख

भगवान ने कहा
1- गृहस्थ धन-उपार्जन करे परंतु अपने परिश्रम से, ईमानदारीपूर्वक, न्याय-नीतिपूर्वक, धर्मपूर्वक, बिना किसी को धोखा दिये।

अगर उपार्जन में उसने कभी कोई श्रम नही किया अथवा जिसे उसने अनीतिपूर्ण ढंग से हासिल किया तो वह सम्पदा उसके सही सुख का कारण नही बन सकती। ऐसा व्यक्ति गृहस्थ के इस प्रथम सुख से वंचित रह जाता है।

2-दूसरा लोकीय सुख है- अपनी मेहनत और ईमानदारी से कमाई हुई सम्पदा का उचित उपभोग और संविभाजन यानी दान द्वारा सदुपयोग।

यदि कोई गृहस्थ अपनी कमाई हुई सम्पदा का लोभ और कंजूसीवश कोई उपयोग नही करता, न अपने लिये, न औरो के लिये तो ऐसा व्यक्ति सद्गृहस्थ के दूसरे सुख से वंचित रह जाता है।
यदि कोई गृहस्थ नासमझीवश अथवा असावधानीवश अपनी कमाई हुई सम्पदा किसी अन्य व्यक्ति के प्रभुत्व में दे देता है, और परिणामस्वरूप आवश्यकता पड़ने पर स्वयं अपने परिवार के भरण-पोषण के लिये अथवा लोक कल्याणहित दान देने के लिये भी उसमे से कुछ नही प्राप्त कर सकता तो वह भी गृहस्थ जीवन के इस दूसरे सुख से वंचित रह जाता है।

3-सद्गृहस्थ का तीसरा लोकीय सुख है- ऋण मुक्ति का सुख।

यदि कोई गृहस्थ नासमझी से अथवा परिस्थितियों से मजबूर होकर ऋण ले लेता है और ऋण की अदायगी नही कर पाता तो गृहस्थ जीवन के तीसरे सुख से वंचित रह जाता है। उऋण रहने का अपना सुख है। ऋणमुक्त होकर ही कोई यह सुख भोग सकता है।

4-सद्गृहस्थ का चौथा लोकीय सुख है- शील पालन।
बड़ा सुख है शील पालन में।
कोई व्यक्ति नासमझी या असावधानी के कारण दुराचारी हो जाता है, और हिंसा, चोरी, व्यभिचार, झूठ या नशा सेवन में से किसी एक या एक से अधिक का सहारा लेकर अपना शील नष्ट कर लेता है तो वह शील पालन के इस अतुल सुख से वंचित रह जाता है।

https://www.dhamma.org/en/courses/search

Monday, July 20, 2020

आत्मज्ञान

एक दिन आनंद और तथागत भिक्षा के लिए एक गाँव जा रहे थे । वह एक झरने से गुजरे जहाँ हाल ही में कुछ पशु नहाकर निकले थे । तथागत और आनंद थोड़े ही आगे निकले और एक पेड़ की छाँव में बैठ गये ।
तथागत बोले – “ आनंद ! पीछे वाले झरने से जरा पानी ले आओ । मुझे बड़ी जोर की प्यास लगी है ।” आनंद ने कमण्डलु उठाया और पानी लेने चल दिया । आनंद जब झरने के पास पहुँचा तो देखा कि उसमें बिलकुल गन्दा पानी आ रहा है । आनंद वापस आया और बोला – “ भगवान् ! झरने का पानी तो बिलकुल गन्दा है । आप आज्ञा दे तो मैं नदी से ले आऊ ?”

तथागत ने कहा – “ नहीं ! तुम झरने से ही लाओ । अब ठीक हो गया होगा ।” आनंद फिर से झरने पर गया । इस बार पानी थोड़ा ठीक था लेकिन फिर भी पीने योग्य नहीं था । अतः आनंद फिर से खाली हाथ ही लौट आया और बोला – “ भगवान् ! पानी तो अब भी गन्दा है । मैं नदी से ले आता हूँ ।”

तथागत बोले – “ तुम थक गये होगे, थोड़ी देर विश्राम कर लो । फिर ले आना ”  थोड़ी देर बाद तथागत ने फिरसे उसे झरने पर पानी लेने भेजा । वह जैसे ही झरने पर पहुंचा । इस बार पानी एकदम स्वच्छ था । उसने अपना कमण्डल भरा और ख़ुशी – ख़ुशी चल दिया ।

तथागत ने पूछा – “ अब पानी कैसा है ? आनंद !” उसने कहा – “ अब तो स्वच्छ है, भगवान्, लेकिन ये चमत्कार कैसे हुआ ?”

तथागत बोले – “ आनंद ! ये कोई चमत्कार नहीं, सब्र का फल है । जानवरों ने पानी में हलचल की जिससे नीचे की धुल और मिट्टी ऊपर आ गई और पानी गन्दा हो गया । जब पहली बार तुम झरने पर गये, उस समय धुल मिट्टी पानी में घुली होने से पानी गन्दा दिखाई दे रहा था । जब तीसरी बार गये तब तक मिट्टी नीचे सतह में जम गई और पानी स्वच्छ हो गया । यही तुम्हारे उस प्रश्न का उत्तर है, जो तुम मुझसे अक्सर पूछते रहते हो ।”

आनंद बोला – “ कैसे भगवान् ?”

तथागत बोले – “ आनंद ! हमारा मन भी उसी झरने की तरह है । जिसमें प्रतिदिन हर पल काम , क्रोध ,  मोह , माया , वासना , के कुविचारों के कितने ही पशु उछलकूद मचाते है । इन कुविचारों और कुसंस्कारों के कारण तुम्हारा मन अस्थिर और अपवित्र होते रहता हैं । ( ध्यान - साधना )  से हम उन कुविचारों और कुसंस्कारों के पशुओं को मन से बाहर करते है और ( ध्यान - साधना ) से मन को स्थिर, शांत और पवित्र करते है । जब तक मन स्थिर, शांत और पवित्र नहीं हो जाता, ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती । इसलिए आनंद ! जब तुम्हारा मन स्थिर होकर समाधिस्थ हो जायेगा । तब तुम्हें स्वतः आत्मज्ञान की उपलब्धि हो जाएगी ।

Sunday, July 19, 2020

शुद्ध धर्मपथ की मंजिलें -- श्री सत्यनारायण गोयन्का

 मेरे प्यारे साधको,
आओ, शुद्ध धर्मपथ (धर्म) को समझें ! शुद्ध धर्मपथ की मंजिलों को समझें!
यह भी समझें की शुद्ध धर्म के पथ पर भी ऊंच-नीच का भेदभाव होता है। यह कैसे होता है ? यह भेदभाव जात-पांत पर आधारित नहीं होता। संप्रदाय पर आधारित नहीं होता। यह धर्मपथ की मंजिलों पर आधारित होता है। चार मंजिलें हैं धर्मपथ की।

पहली मंजिल है शील की, दूसरी है समाधि की, तीसरी है प्रज्ञा की और चौथी है विमुक्ति की। 
कोई एक व्यक्ति ऐसा होता है जो धर्मपथ की मंजिलों की चर्चा प्रशंसा तो बहुत करता है। उन पर पुस्तकें लिखता है, उनकी अच्छाइयों के बारे में लोगों से खूब बहस करता है पर स्वयं पथ पर नहीं चलता। एक कदम भी नहीं चलता। 

कोई दूसरा व्यक्ति ऐसा होता है जिसने शुद्ध धरम के बारे में सुना है। सुनकर उससे प्रभावित हुआ है और धर्मपथ पर चलने लगा है। चलते-चलते पहली मंजिल पर पहुंच गया है। शील सदाचार का जीवन जीने लगा है परंतु अभी उसने समाधि का अभ्यास नहीं किया, प्रज्ञा का अभ्यास नहीं किया। 
धर्म के पथ पर यह दूसरा व्यक्ति निश्चय ही पहले व्यक्ति से आगे है इसलिये पहले के मुकाबले महान है।

कोई तीसरा व्यक्ति ऐसा होता है जो धर्मपथ पर चलते हुए शील में तो प्रतिष्ठित हुआ ही, धर्मपथ की अगली मंजिल समाधि तक भी पहुँच गया, यानी, उसकी चित्त-एकाग्रता भी सबल हो गयी। धर्मपथ पर ऐसा तीसरा व्यक्ति उस दूसरे व्यक्ति से महान ही है जो कि अभी शील की मंजिल तक ही पहुँचा है और पहले व्यक्ति से तो बहुत अधिक महान है जो कि अभी शीलवान भी नहीं बन पाया। 

कोई चौथा व्यक्ति ऐसा होता है जो कि धर्मपथ पर चलते हुए न केवल शील की और समाधि की ही मंजिल तक पहुँचा है, प्रत्युत प्रज्ञा की मंजिल तक भी जा पहुंचा है। यानी, शीलवान, समाधिवान ही नहीं प्रज्ञावान भी हो गया है। ऐसा व्यक्ति उस तीसरे व्यक्ति से कहीं महान है जो कि अभी समाधि की मंजिल तक ही पहुँचा है। पहले से तो वह महान है ही जो कि शीलवान भी नहीं और दूसरे से भी महान है जो कि शीलवान है पर समाधिवान नहीं।

ऐसे ही कोई पांचवां व्यक्ति ऐसा होता है जो धर्मपथ की अंतिम मंजिल तक पहुँच गया। वह शील, समाधि और प्रज्ञा में पुष्ट होकर विमुक्ति रस भी चख चुका । यानी, निर्वाणदर्शी भी हो गया। 
ऐसा व्यक्ति उस चौथे व्यक्ति से तो महान है ही जो कि शीलवान है, समाधिवान है, प्रज्ञावान है फिर भी अभी तक इंद्रियातीत निर्वाण का दर्शन नहीं कर सका है। परंतु पहले, दूसरे और तीसरे व्यक्ति से कहीं महान है जो कि अभी बहुत पिछड़े हुए हैं।

इस प्रकार क्रमश: धर्मपथ से दूर रहने वाले व्यक्ति से शीलवान, शीलवान से समाधिवान और शील-समाधिवान से शील-समाधि-प्रज्ञावान अधिक महान है और शील-समाधि-प्रज्ञावान से वह व्यक्ति और अधिक महान है जो कि शील-समाधि-प्रज्ञावान होते हुए विमुक्त भी हो चुका है।

इस प्रकार धर्मपथ पर महान और क्षुद्र का भेदभाव है ही, ऊंचनीच का भेदभाव है ही। पर यह भेदभाव व्यक्ति के जन्म के कारण नहीं। किसी भी जाति, वर्ण, गोत्र और देशकाल में जन्मा हुआ व्यक्ति हो, वह इन पांचों व्यक्तियों में से कोई भी एक हो सकता है या पांचों। धर्मपथ की ऊंची से ऊंची मंजिल तक पहुँचने में भी जन्म कोई बाधा नहीं पैदा कर सकता। कोई भी व्यक्ति अपने पुरुषार्थ, परिश्रम से धर्म की अंतिम मंजिल तक पहुँच सकता है। उसके लिए कहीं कोई रुकावट नहीं। रुकावट है तो केवल उसकी अपनी कमजोरियों की, उसके अपने प्रमाद की। इन्हें दूर कर ले और काम में लग जाय तो कदमकदम धर्मपथ पर आगे बढ़ता ही जायगा। नीच से ऊंच बनता ही चला जायगा। उसे कोई नहीं रोक सकता।

साधको! जातिवाद की मिथ्या मान्यताओं को और संप्रदायवाद की: बाधक बेड़ियों को तोड़कर आओ! शुद्ध धर्मपथ पर कदम-कदम चलते रहें और विमुक्त अवस्था तक पहँचकर अपना मंगल साध लें ।

नवंबर 2019 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित
(विपश्यना पत्रिका वर्ष-18, अंक 6, मार्गशीर्ष पर्णिमा. 23-12-1988 से साभार)

धर्म क्या है ? - सत्यनारायण गोयन्का

    आओ , आज  की इस धर्म सभा में पहले तो यह समझें कि धर्म क्या हैं ? और फिर यह समझें कि हम धर्म क्यों धारण करें ?  और फिर यह भी समझें कि  धर्म धारण करें तो कैसे धारण करें  ?
   इन तीन दिनों की विख्यान माला में इन्हीं विषयों का प्रतिपादन किया जायगा । तो आज समझें - धर्म क्या हैं  ?
  
    सारे भारत का बहुत बड़ा दुर्भाग्य रहा कि पिछले १५०० वर्ष या यूँ कहें दो हजार वर्षों से धर्म शब्द का जो सही रूप था , सही अर्थ था , उसे खो बैठे । धर्म का सही अर्थ ही नहीं मालूम होगा तो उसे धारण कैसे करेंगे ? अब तो धर्म शब्द के साथ बैसाखीयां लग गयीं । मानो धर्म को कोई सहारा चाहिए । इस समुदाय का अलग धर्म, इस समुदाय का अलग धर्म , तो किसी को कहा बौद्ध धर्म ,  किसी को हिन्दू  धर्म , जैन धर्म , सिख धर्म , ईसाई धर्म इत्यादि ।

    धर्म को बैसाखी की जरूरत नहीं होती । धर्म को किसी अन्य के साहारे की जरूरत नहीं होती ।
धर्म तो स्वयं सहारा देने वाला हैं, उसको किस सहारे की जरूरत हैं ? लेकिन जब नासमझी से धर्म शब्द के साथ ये बैसाखीयां (crutches ) जोड़ दी जाती हैं तो बैसाखीयां प्रमुख हो जाती हैं , धर्म बेचारा गौण हो जाता हैं । धर्म नेपथ्य में , अंधेरे में चला जाता है । दुर्भाग्य से यही होने लगा ।

    पुरातन भारत में धर्म कहते थे - धारण करें सो धर्म । धारेती' ति धम्मं । क्या धारण करें ? हमारा चित्त जिस किसी चित्त वृत्ति को धारण करेगा , उस समय वह उस चित्त का धर्म हैं । अपना स्वभाव धारण करता है । अपना लक्षण धारण करता है । जो चित्त वृत्ति मैंने अपने चित्त पर इस समय धारण की उसका स्वाभाव क्या है ? यानी, धर्म का दूसरा अर्थ - स्वभाव , प्रकृति , निसर्ग , ऋत ; बहुत पुराना अर्थ था ।' स्वभाव' आज भी कभी - कभी इसी अर्थ में प्रयोग में आ जाता है , जब हम कहते हैं कि अग्नि का धर्म हैं जलना और जलाना माने इसका स्वभाव है ।अगर वह जलती नहीं और उसकी लपेट में जो आ जाय उसे जलाती नहीं तो वह अग्नि नहीं , कुछ और हैं । ऐसे ही कह सकते हैं बर्फ का स्वभाव है शीतल होना और शीतल करना । अगर वह स्वयं शीतल नहीं होती और उसके समीप जो आये उसको शीतल नहीं करती तो बर्फ नहीं , कुछ और हैं । 

    आज भी कभी - कभी कहते हैं कि सारे प्राणी मरणधर्मा हैं , व्याधीधर्मा हैं , जराधर्मा हैं - यह स्वभाव है । इस  अर्थ में धर्म का जब प्रयोग किया जाता हैं तब धर्म समझ में आने लगता है । मैंने अपने चित्त में जो चित्त वृत्ति धारण की , उसका कैसा धर्म । मैंने अपने चित्त में मैल जगाया , क्रोध , द्वेष , दुर्भावना , ईर्ष्या , अहंकार कोई भी  विकार जगाया , इनका क्या स्वभाव है ? 
    हमारे देश के मुनियों , ऋषियों , महापुरुषों , सद्गरुओं , अरंहतो , बुद्धों  ने , सम्बुद्धों ने यही खोज की  कि इस समय चित्त में जो जागा , उसका क्या स्वभाव है ।
    
     क्रोध , द्वेष , दुर्भावना , ईर्ष्या , अहंकार  कोई भी विकार जागे , बहुत जलन पैदा होती हैं । बहुत व्याकुलता पैदा करता है ।यह स्वभाव है उसका । मुझे क्रोध भी आये और भीतर व्याकुलता नहीं हो तो वह क्रोध नहीं है , कब और हैं । क्रोध , द्वेष , दुर्भावना आदि जागी हैं तो व्याकुलता उसके साथ - साथ आयेगी ही इसे सहजात कहा , यानी , यह  दुःख एक  साथ जन्मता हैं ।

    जिस पात्र में हमने जलते हुए अंगारे रखे , वे पहले उस पात्र  को जलाते हैं , तपाते हैं और फिर आसपास के वातावरण को संतापित करने लगते हैं । जो भी उस वातावरण में आयगा तपन महसूस करेगा । ऐसे ही जिस पात्र में बर्फ रखें , उसका पहला काम या स्वभाव हैं पहले उस पात्र को शीतलता प्रदान करेगी और फिर आसपास के वातावरण में शीतलता विस्तारीत करेगी । यह स्वभाव है ।

    हमारे देश के ऋषियों , मुनियों ने यह बात देख ली कि जब - जब मनुष्य अपनी नासमझी में, नासमझी ही हैं भाई , कोई समझ करके अपने आप को क्यों जलायेगा ? कोई समझता हुआ अपने को क्यों व्याकुल करेगा ? नासमझ हैं इसलिए अपने मानस में क्रोध , द्वेष , ईर्ष्या , अहंकार या अन्य कोई विकार जगाया तो जलने लगा । क्योंकि हमने पात्र मे जलते हुए अंगारे डाल दिये और अंगारों का तो यही स्वभाव है । उसकी जगह यदि उसमें बर्फ रखे , क्या बर्फ रखें ? मैत्री , करुणा, सद्भावना जैसी चित्त वृत्तियां डालें तो देखेंगे भीतर ही भीतर इतनी शांति ,इतनी शीतलता ! क्योंकि वह उसका स्वभाव है । 

    सभी सद्वृत्तियों का यही स्वभाव है कि वे हमें भीतर बहुत शांति प्रदान करेगी , बहुत शीतलता प्रदान करेगी और फिर आसपास के सारे वातावरण में शांति और शीतलता भर देंगे ।

   जब आदमी क्रोध जगाता हैं तब उस क्रोध  का पहला शिकार वह स्वयं होता हैं । औरों को तो पीछे व्याकुल करेगा , पहले खुद व्याकुल हो जायगा और फिर व्याकुलता बिखरने लगेगी । जब मैं क्रोध जगाऊं तो उस समय मेरे संपर्क में जो आये , वही बेचारा व्याकुल हो जायगा । सारे वातावरण को तनाव से भर दूंगा । मैंने जो चित्तवृत्ति जगाई हैं उसका यह स्वभाव है , धर्म हैं , वह अपना धर्म प्रकट करेगी ।  क्योंकि ऐसी चित्तवृत्ति जगायी हैं जो व्याकुलता पैदा करने वाली हैं ।मेरे लिए भी व्याकुलता , औरों के लिए भी व्याकुलता । यह होश जाग जाय तो जानबूझ कर कौन अपने आप को व्याकुल करेगा ?

    एक नन्हा - बच्चा , जो अबोध है , उसे अभी होश नहीं है । अपनी नासमझी में वह जलते हुए अंगारों पर हाथ रख देता है, हाथ जलता हैं तो हाथ पीछे खींचता हैं , इतना तो जान गया कि इससे हाथ जलता हैं , हाथ पीछे खींचता हैं । कभी नासमझी में फिर हाथ रख दिया , फिर जला , फिर हाथ पीछे कर लिया । एक बार हुआ , दो बार हुआ , पांच बार हुआ , दस बार हुआ , अब वह समझ गया, ये अंगारे  हैं इनको नहीं छूना चाहिए । यह आग हैं इसे नहीं छूना चाहिये। 

   एक नन्हा सा बच्चा भी समझ जाता है और हमारी नासमझी देखो ! अंगारे भरे जा रहे हैं भीतर , अपने को जलाये जा रहे हैं , स्वयं जल रहे हैं , औरों को जला रहे हैं लेकिन उससे छुटकारा पाने की कोशिश नहीं करते । इसलिए नहीं करते कि जब हमारे भीतर क्रोध , द्वेष , दुर्भावना , अहंकार, ईर्ष्या या कोई भी विकार जागता हैं तब उस  समय जिस व्यक्ति पर , जिस घटना पर जागा, हमारे मानस में वही घूमता रहता है  । किसी पर मुझे क्रोध आया क्योंकि उसने मेरा अपमान किया । कोई ऐसा काम किया जो मेरे लिए अनचाहा हैं , या मेरे मनचाहें काम में कोई बाधा पैदा कर दी तो मुझे क्रोध आया । तब मैं कहू्ंगा - स्वाभाविक है , क्रोध तो आयगा ही , और क्या होगा ? 

    अरे, क्या स्वाभाविक है भाई ! तू करने क्या लगा ? तू क्रोध तो उस पर पैदा कर रहा है , जिसने तेरे काम में कोई अडचन पैदा की , तेरी इच्छाओं की पूर्ति होने में कोई बाधा पैदा की, और जला रहा है अपने आप को । क्योंकि देख नहीं पाये कि क्रोध जगाया तो मेरे भीतर क्या होने लगा ? यह देखना ही भूल गये । जब किसी दूसरे व्यक्ति पर , दूसरी घटना या स्थिति पर क्रोध जगाया , तब बार - बार मन उसी पर जाता है । उसने मेरा इतना अपमान किया , ऐसा कहा , यह बात ऐसी हो गयी .....। मानस बहिर्मुखी हैं , बाहर की सच्चाई की ओर वह झुका हुआ हैं । मेरे भीतर क्या होने लगा, यह देखना ही बंद कर दिया ।
    भारत में इस देखने की विद्या को  विपश्यना  कहते थे ।यह बहुत प्राचीन , बहुत पुरानी विद्या है - अपने आप को देखना है । अपने भीतर क्या हो रहा है, वह ज्यादा जरूरी है । बाहर क्या हो रहा है , इससे हम अनजान नहीं रहेंगे , उसको भी जानना है ; पर उससे ज्यादा जरूरी यह जानना कि अमुक घटना घटने से , अमुक व्यक्ति या अमुक स्थिति के संपर्क में आने से , मेरे भीतर क्या होने लगा ? 

   जिस दिन अच्छी तरह से यह देखना आ जाता है तब धर्म समझ में आने लगता है । वह धर्म जिसके साथ कोई बैसाखीयां नहीं लगीं । शुद्ध धर्म समझ में आने लगता है ।  अरे भाई , स्वभाव है न, मैंने मन को विकारों से विकृत किया तो इन विकारों का स्वभाव है - व्याकुल ही बनायेंगे । और देखने लगा तो एक बार देखेगा , दो बार देखेगा , दस बार देखेगा । बाद में हर घटना से काट करके अपने भीतर देखने लगेगा । अभी तो कहता है कि बाहर जो घटना घटी  इसकी वजह से मेरे मन में क्रोध , द्वेष , दुर्भावना या जो भी विकार जागा, उसका आलंबन बाहर का हैं । उसे एक बार दुर करके देखें - मेरे भीतर क्या होने लगा ? मैंने जो यह क्रोध की प्रतिक्रिया की, तब क्या होने लगा ? अरे जलने लगा न ! बड़ा व्याकुल होने लगा रे !  ऐसा एक बार, दो बार , दस बार देखेगा, स्वभाव पलटना शुरू हो जायगा । तो धर्म धारण करने लगा । अब वह समझ गया कि धर्म क्या हैं ?  हम विकोरों से विकृत न हो , यह धर्म हैं । ऐसे ही हम विकारों के बजाय अपने मानस में सद्गुण  पैदा करें , मन में मैत्री , करुणा, सद्भावना जगायें तब देखेंगे भीतर इतना सुख , इतनी शांति , इतनी शीतलता ! बाहर के किसी व्यक्ति पर करुणा , मैत्री जगायी, अरे , इतना सुख , इतनी शांति , इतनी शीतलता ! 

    अब अनुभव से जानने लगा तब धर्म सही माने में धर्म हो गया । धारेती ' ति धम्मं । अब धारण कर रह हैं । समझ रहा है - अग्नि को धारण करुंगा तो जलुंगा ही । दुनिया की कोई शक्ति मुझे नहीं बचा सकती और बर्फ धारण करुंगा शीतल होऊंगा ही , दुनिया की कोई बाधा उसमें व्यवधान नहीं डाल सकती । प्रकृति का नियम है । यहीं ऋत, यही विश्व का विधान , कुदरत का कानून है जो सब पर लागू होता है । अपने को चाहे जिस नाम से पुकारे , कोई फर्क नहीं पड़ता । कोई भी आदमी जलते हुए अंगारों पर हाथ रखे तो अंगारे इस बात को नहीं देखते कि यह आदमी अपने को हिन्दू कहता है कि बौद्ध..... उससे कोई लेन - देन नहीं । अग्नि का स्वभाव है, वह जलायगी ही । बर्फ पर हाथ रखा तो शीतल करेगी ही । जिस दिन धर्म का यह सार्वजनिन स्वरूप प्रकट होने लगता है , उस दिन बहुत बड़ा लोक कल्याण होना शुरू हो जाता हैं । और इसे भूल कर बाहर - बाहर के आलंबनों को महत्व देना शुरू कर दिया , तब अपने आप को सुधारने का काम बंद कर दिया । धर्म से दुर जाने लगे । ऊपर - ऊपर से यह भ्रम होता हैं कि मैं बहुत धार्मिक हूं , लेकिन जब होश जागे तब देखेगा कि कहा धार्मिक हूं । मैं तो जब देखो तब विकार जगाता हूं । मुझे धर्म का जरा - सा ज्ञान नहीं ,  मुझे धर्म का जरा - सा होश नहीं , मै धर्म धारण नहीं करता । मैं अपने मन को मैला करते रहता हूं , व्याकुल होते रहता हूं तथा औरों को व्याकुल करते रहता हूं ।तब मैं धार्मिक कैसे हुआ ? अब सोचेगा , क्योंकि धर्म की सही बात समझ में आने लगी ।

    हर समाज की अपनी - अपनी परंपरायें चली आ रही हैं । लोग अपने - अपने तीज  - त्योहार मनाते हैं , व्रत - उपवास करते हैं , कर्म - कांड करते हैं , पर्व - त्योहार मनाते हैं , मनाएं । अपनी - अपनी वेश - भूषा, दार्शनिक मान्यता ..., ये सब अलग - अलग हैं । इसलिए अलग - अलग समाज हैं , अलग - अलग सम्प्रादाय हैं , समूह हैं , समुदाय हैं , कोई बुरी बात नहीं । परंतु समझें कि इनसे धर्म का कोई लेन - देन नहीं । ये सब तो सामाजिक आमोद - प्रमोद के लिए हैं , करने चाहिए , लेकिन धर्म के साथ इसे जोड़ देंगे तो धर्म से दूर होते चले जायेंगे ।    

-विश्व विपश्यना आचार्य 
 श्री. सत्यनारायण गोयन्का

http://www.vridhamma.org/en1999-06

http://www.vridhamma.org/

https://www.dhamma.org/en/courses/search

Friday, July 17, 2020

प्रश्न उत्तर -- श्री सत्यनारायण गोयन्का

प्रश्न :- सही  गलत काम वासना में क्या अंतर है क्या यह चेतना का प्रश्न है? 

स. ना. गोयन्का : नहीं, कामवासना का एक गृहस्थ के जीवन में उपयुक्त स्थान है। इसे जबरदस्ती दबाया नहीं जाना चाहिए क्योंकि लादे हुए ब्रह्मचर्य से तनाव उत्पन्न होता है जिससे और समस्याएं, कठिनाइयां बढ़ती है तथापि यदि आप अपनी कामवासना को खुली छूट देते हैं और कामुकतावश किसी के साथ भी संभोग करते हैं तब फिर आप अपने चित्त को काम वासना से मुक्त नहीं कर सकते, समान रूप से खतरनाक इन दोनों अतियों को छोड़कर धर्म एक मध्यम मार्ग प्रदान करता है, संभोग एक स्वस्थ अभिव्यक्ति है जहां आध्यात्मिक उन्नति की गुंजाइश है और वह है एक नर-नारी का याैन संबंध जो एक दूसरे के साथ प्रतिबद्ध हो। और यदि आपका सहभागी भी विपश्यी साधक है तब जब कभी कामवासना जागती है आप दोनों तटस्थ भाव से उसका निरीक्षण करते हैं यह न उसे दबाना हुआ और न खुली छूट देना। देखते देखते आप सरलतापूर्वक काम वासना से मुक्त हो सकते हैं। कभी-कभी कोई दंपत्ति अब भी यौन संबंध रखना चाहेंगे परंतु धीरे-धीरे एक ऐसे सोपान पर पहुंच जाएंगे जहां कामवासना की कोई सार्थकता नहीं रहेगी। यही वास्तविक और नैसर्गिक ब्रह्मचर्य का सोपान है जबकि चित्त में कामवासना का विचार तक नहीं जागता। यह ब्रह्मचर्यसूख यौन संतुष्टि से कहीं श्रेष्ठतर है। आप सदा संतुष्टि-सामंजस्य का अनुभव करते हैं। हमें इस वास्तविकता को सीखना चाहिए। 

प्रश्न :- पश्चिम में अनेक लोग यह मानते हैं कि परस्पर सहमति के साथ किन्ही दो वयस्कों के बीच याैन संबंध स्वीकार्य है? 

स. ना. गोयन्का : यह सोच धर्म से बहुत दूर है जो व्यक्ति आज किसी एक के साथ यौन संबंध रखता है फिर दूसरे के साथ और फिर किसी अन्य के साथ वह अपनी कामवासना को और दुःख को कई गुना बढ़ाता है आपको किसी एक के साथ प्रतिबद्ध होना चाहिए अथवा ब्रह्मचर्य का जीवन जीना चाहिए।

प्रश्न :- क्या मांस खाना शील भंग है? 

नहीं, जब तक कि आप स्वयं पशु हत्या नहीं करते हैं। यदि आपको मांस परोसा जाता है और आप किसी अन्य खाद्य पदार्थ के समान इसके स्वाद का आनंद उठाते हैं, आपने शील को नहीं तोड़ा है। परंतु इसमें संदेह नहीं कि आपने मांस खाकर अप्रत्यक्ष रूप से किसी अन्य को पशु-हत्या का शील तोड़ने के लिए प्रेरित किया है। अधिक सूक्ष्म स्तर पर आप मांस खाकर अपनी हानी करते ही है। प्रत्येक क्षण जब कोई पशु राग-द्वेष जगाता है, वह अपना निरीक्षण करने और अपने चित्त को शुद्ध रखने में समर्थ नहीं होता है, उसके शरीर का रेशा रेशा राग-द्वेष से आप्लावित हो जाता है। मांस खाते हुए आप राग-द्वेष के इस निवेश को ग्रहण करते हैं। साधक राग द्वेष का क्षय करने का प्रयास करता है इसलिए इस प्रकार का भोजन ना करने से उसे इस काम में सहायता मिलती है।

प्रश्न :- क्या इसीलिए विपस्सना शिविरों में केवल शाकाहारी भोजन दिया जाता है? 

उत्तर : हां, क्योंकि विपश्यना साधना के लिए यही सबसे अच्छा है।

प्रश्न :- क्या आप दैनिक जीवन में भी शाकाहारी भोजन की संस्तुति करते हैं?
 उत्तर : हां, यह भी सहायक है

प्रश्न :- पांचवां शील क्या है- नशीले पदार्थों से दूर रहना अथवा मदहोश नहीं होना ?देखा गया है कि बिना मदहोश हुए संयम के साथ पीना खास तौर पर हानिकारक नहीं मालूम पड़ता। अथवा क्या आप यह कहना चाहते हैं कि एक गिलास शराब पीना भी शील भंग है?'

उत्तर : अल्पमात्रा में भी पीने से, अंत में आप शराब के व्यसन का शिकार हो जाते हैं। प्रारंभ में आप यह अनुभव नहीं करते परंतु शराब पीने के व्यसनकी ओर एक कदम आप आगे बढ़ाते हैं जो सचमुच ही आपके और दूसरों के लिए हानिकारक है। प्रत्येक शराबी एक गिलास से ही शुरू करता है। दु:ख की ओर (इस एक गिलास से) पहला कदम क्यों उठाएं ? यदि आप गंभीरतापूर्वक साधना करते हैं और आप किसी दिन भूल से अथवा किसी सामाजिक समारोह में एक गिलास शराब पी लेते हैं, उस दिन आपको पता चलेगा कि आपकी साधना कमजोर है। नशे का सेवन तथा धर्म का पालन साथ-साथ नहीं होता । यदि आप धर्म में सचमुच आगे बढ़ना चाहते हैं तो आपको सभी नशीले पदार्थों से दूर रहना चाहिए। यह हजारों साधकों का अनुभव है।

Thursday, July 2, 2020

झूठ बोलने से बचना चाहिए


"धर्म दुु:खको, शोकको मिटाता है और सुख प्रदान करता है। यह सुख कौन देता है? बुद्ध नहीं देते। यह आपके अंदर जागृत अनित्य विद्या है जो सुख देती है। हमें विपश्यना का अभ्यास करना चाहिए ताकि अनित्य विद्या का ज्ञान हमेशा होता रहे, अनित्यता का दर्शन सदा प्रतिक्षण होता रहे, यह कभी अन्तर्धान न हो जाय। हमलोग कैसे अभ्यास करें? चार तत्त्वों पर ध्यान  केन्द्रित करो, शांत होकर समाधि का अभ्यास करो और शील को भंग मत करो। झूठ बोलने से बचना चाहिए, यह शील जल्दी टूटता है। मुझे दूसरो से इतना भय  नही, लेकिन झूठ बोलकर मैं अपने शील के आधार को कमजोर बनाता हूं। जब शील कमजोर हो तो समाधि भी कमजोर होगी और प्रज्ञा भी कमजोर हो ही जायगी। सत्य बोलें, नियमित अभ्यास करें, समाधि को दृढ़ बनावें और इस पर ध्यान दें कि आपके शरीर पर हो क्या रहा है। ऐसा करने से अनित्यता की प्रकृति स्वाभाविक रूप से प्रकट होगी। ..." 
— सयाजी ऊ बा खिन।
अर्थात- एक धार्मिक व्यक्ति को न झूूठ बोलना चाहिए, न कुछ छिपाना चाहिए। (सं .)
(सयाजी जर्नल में प्रकाशित सयाजी ऊ बा खिन का व्याख्यान- 'मार की दस सेनाएं '- से साभार उद्धृत)