Saturday, August 29, 2020

ऐसे थे गुरुदेव ! अद्भुद प्रशिक्षण- आचार्य सत्यनारायण गोयन्का


"गोयन्का, आओ तुम्हें चलना सिखाएं!"  गुरुदेव की करुणाभरी पर चौंकादेने वाली वाणी । मैं कोई घुटनों चलता शिशु तो था नहीं। गुरुदेव चलना क्या सिखायेंगे भला ! पर सचमुच चलना ही सिखाया । विपश्यी योगी कैसे चले, यह सिखाया।

मैं महीने के लंबे शिविर में बैठा था। विपश्यना की जो गहराइयां दस-दस दिनों के शिविरों में अनुभूत हुई थीं, वे अब छिछली लगने लगीं। सचमुच धर्म कितना गहन गंभीर है! जिस भंग ज्ञान की अवस्था प्रथम दस दिवसीय शिविर में प्राप्त हो गयी, वह आगे जाकर सहज बन गयी। परन्तु दस दिन की लंबी आनापान के पश्चात् जब विपश्यना आरंभ की तो जो भंग अवस्था आयी, वह अपूर्व थी। शरीर का ठोसपना पहले ही समाप्त हो चुका था, पर अब बात कुछ और ही थी। धारा-प्रवाह की अनुभूति जो कि पहले बड़ी सूक्ष्म लगती थी, अब अधिक सूक्ष्मता प्राप्त कर लेने पर वह स्थूल लगने लगी। आखिर स्थूल-सूक्ष्म तो सापेक्ष ही हैं। एक की अपेक्षा सूक्ष्म तो दूसरे की अपेक्षा स्थूल। पूज्य गुरुदेव ने वास्तविकता देखी और समयानुसार चलना सिखाया। बड़ा अद्भुत अनुभव था।

चलते हुए शरीर में कहीं-कहीं संवेदना की अनुभूति करते हुए अनित्य बोध पुष्ट करने का काम तो पहले भी होता था, परन्तु अब जिन गहराइयों में सत्य-दर्शन करते हुए चलना सिखाया गया, वह तो सचमुच ही बड़ा अद्भुत था। शरीर की मृण्मय अवस्था किन गहराइयों से चिन्मय हो गयी । समग्र शरीर केवल परमाणुओं का पुंज, जिसमें त्वरित गति से व्यय भंग होने के अतिरिक्त और कुछ नहीं। मन हृदयवत्थु पर टिका हुआ हर कदम के साथ समग्र शरीर-पिंड के विघटन का अनुभव कर रहा था। मानो नदी तट का कोई रेतीला कगार नदी के तेज बहाव से कट कर भरभराकर गिर पड़ा हो । सभी रेतीले कण अलग-अलग हो गए हों। मानो तेज आंधी से रेगिस्तानी बालू का टीला उड़ गया हो। एक-एक बालू-कण बिखर गया हो । चलते हुए समग्र शरीर की विपश्यना इतनी गंभीर हो सकती है, इसकी पहले कल्पना भी नहीं थी। क्या खूब चलना सिखाया गुरुदेव ने!

ऐसे ही एक दिन भोजन करना सिखाया । विपश्यना की वैसी ही एक गंभीर भंग अवस्था में कहा, “चलो आज तुम्हें खाना सिखाएं!"

इस बार चौंक नहीं, पर किसी गंभीर अनुभूति की उत्सुकता लिए उनके साथ भोजनशाला पहुँचा । हमेशा आश्रम में पूज्य गुरुदेव के साथ ही बैठकर भोजन किया करता था। आज भी उनकी भोजन की चौकी के सामने ही अभिमुख होकर बैठा। थाली में भोजन परोस दिया गया। गुरुजी ने एक खाली प्याला मँगवाया और कहा कि रोटियों के छोटे-छोटे टुकड़े करके इसमें डाल दो। ऐसा हो चुकने पर अब इस थाली में साग, सब्जी, दाल, दही, भात इत्यादि सूखा या गीला, ठोस या तरल, खट्टा या मीठा, नमकीन या कसैला जो कुछ है। उसे इस प्याले में डालकर मिला लो। सुना था कई भिक्षु इसी प्रकार मिलाकर भोजन करते हैं। पर विपश्यी भोजन की बात तो और भी निराली थी। कटोरे में भोजन को पूरी तरह मिला लेने के पश्चात् गुरुजी ने कहा, “अब आंख बंद करके ध्यान करो।" गंभीर भंग ज्ञान की साधना से उठकर आया था। भंग ज्ञान में से भोजनशाला तक चलकर आया था। अतः आंख बंदकर यथाभूत सच्चाई का ध्यान करते ही देखा कि सारा शरीर नन्हें-नन्हें परमाणुओं की। भंग-स्वभावी तीव्र भुरभुराहट की अनुभूति से भर उठा।

कुछ देर बाद गुरुदेव ने कहा, “आंखें बंद रखो और सामने रखे प्याले में से एक कौर भोजन उठाओ!" भोजन को छूते ही लगा जैसे भोजन के परमाणुओं में बिजली का करंट हो, जो अँगुलियों के परमाणुओं के करंट से छू गया। तीव्र झनझनाहट हुई। उनके आदेशानुसार भोजन का ग्रास मुँह की ओर ले गया। जैसे ही होठों को लगा, फिर तीव्र झनझनाहट की अनुभूति हुई । अब चबाते समय होठों पर, मसूड़ों पर, जीभ पर, मुँह की भीतरी दीवारों पर जहां-जहां भोजन का स्पर्श होता, वहीं-वहीं तीव्र झनझनाहट। भोजन का स्वाद गौण हो गया। यह झनझनाहट का अनित्यबोध प्रमुख हो गया। निगलने लगा तो वैसे ही गले में, और गले से उतरते हुए आहार-नलिका में, वैसी ही अनुभूति होती रही। यों एक-एक ग्रास, एक-एक ग्रास खाते हुए भोजन पूरा हुआ तो गुरुजी ने विश्राम करने के लिए कहा। उसी भंग अवस्था में चलते हुए अपने निवास पर आया और बिस्तर पर लेट गया। आंखें बंद थीं, मन भीतर था। भोजन के परमाणु-पुंज का शरीर के परमाणु-पुंज के साथ होते हुए आघात-प्रतिघात का विचित्र अनुभव था। पेट की एक-एक हलन-चलन बहुत साफ-साफ महसूस हो रही थी। इसके साथ ढेर के ढेर परमाणुओं की बुदबुदाहट का भंग ज्ञान। ऐसी अद्भुत विपश्यी भोजन की अनुभूति से निहाल हो उठा।

इसके पूर्व भोजन के प्रति गहरी आसक्ति रहा करती थी। विशेषकर मिर्च-मसालों वाले चटपटे और तले हुए पदार्थों के प्रति । इस दीर्घ शिविर के बाद वह आसक्ति अनायास ही टूट गयी। अब सादे सात्विक भोजन की ओर ही अभिरुचि बढ़ने लगी। पहले तो मानो खाने के लिए जीता था और अब जीने के लिए खाना आ गया। शरीर को सबल-स्वस्थ रखकर अध्यात्म के क्षेत्र में उसका उपयोग करना है। इस निमित्त शुद्ध सात्विक आहार की आवश्यकता है, अतः ग्रहण करना है, पर जीभ के स्वाद के लिए नहीं। भला सिखाया भोजन करना गुरुदेव ने!

अद्भुत परीक्षण विपश्यना साधना की गहराईयों में उतरनेवाला विभिन्न संवेदनाओं के प्रति संवेदनशील होता चला जाता है। पहले तो अपने शरीर की सीमाओं के भीतर ही, परन्तु आगे चल कर भीतर के ध्यान के बाद बाहर के किसी सजीव-निर्जीव व्यक्ति, वस्तु के प्रति; यहां तक कि वातावरण की तरंगों के प्रति भी संवेदनशील होने लगता है।

किसी एक दस दिवस के शिविर में हम दोनों सम्मिलित हुए। दसवें दिन सायं सात बजे के आस-पास शिविर समापन हुआ । घर से बच्चे हमें लेने आए। कृतज्ञता के भावों से अभिभूत होकर पूज्य गुरुदेव के चरणों में पंचांग नमनकर उनकी मंगल मैत्री लेकर जाने लगे तो उन्होंने बच्चों से पूछा - “क्यों रे, आज के खेल की टिकटें मिलीं ?"

बच्चों ने कहा, "हां"। - “तुम्हारे माता-पिता के लिए भी टिकटें लीं?”

बच्चों ने फिर स्वीकृतिमय उत्तर दिया । गुरुदेव ने खुश होते हुए कहा, - “जल्दी जाओ, खेल शुरू होने का समय हो रहा है।"

कार में बैठते हुए हमने बच्चों से पूछा, “कौन से खेल की बात हो रही थी?" 

उन्होंने कहा, "हॉलीडे ऑन आइस ।" उन दिनों रंगून में, अमेरिका से आई एक नृत्य प्रदर्शनी कंपनी के खेल-तमाशे चल रहे थे। खुले मैदान में बने एक मंच पर बर्फ जमाकर यह नृत्य मंडली उस पर स्केटिंग का खेल दिखाती थी। जिन गरम देशों में कभी बर्फ नहीं गिरती, वहां इस प्रकार की स्केटिंग लोगों के लिए नवीनता का आकर्षण लेकर आयी थी। बर्मा में यह खेल पहली बार आया था। अतः दर्शकों की भीड़ थी। बच्चों ने अग्रिम पंक्ति की टिकटें पहले से रिजर्व करवा ली थीं। मैं जानता था कि वहां कैसा गंदा वातावरण होगा। अतः पूछ बैठा कि हमारी टिकटें क्यों लाए? तुम्हें देखना था तो देख आते। परन्तु यह सुनकर विस्मयचकित रह गया कि इसका आदेश स्वयं गुरुजी ने दिया है। विश्वास नहीं हो रहा था, गुरुजी ऐसा आदेश क्यों देते ? सचमुच आश्रम से निकलते-निकलते उन्होंने बच्चों से पूछा भी तो था। पर ऐसा क्यों?

दस दिवसीय गंभीर साधना द्वारा तपोभूमि के निर्मल वातावरण में तपते हुए अन्तर्तम की प्रगाढ़ प्रशांति की अनुभूति लिए सीधे घर जाते तो उसका असर घर के वातावरण पर छा जाता । सब का कल्याण होता। गुरुदेव को यह क्या सूझी? ऐसे परम पावन ब्राह्मी वातावरण से उस घोर पातकी नारकीय वातावरण की ओर क्यों ढकेला भला?  कुछ समझ में नहीं आ रहा था। पर करते क्या! घर लौटने की बजाय उस बर्फील क्रीड़ांगन की ओर चले। सारी कुर्सियां दर्शकों से खचाखच भरी थीं। लगा बरफ पर स्केटिंग देखने तो कम, परन्तु उन हेम-केशीय पश्चिमी नृत्यांगनाओं की अर्धनग्न देह-यष्टि देखने के लिए अधिक लोग आए थे। इसीलिए खुले मैदान में भी वातावरण घुटनभरा था। हम जिन कुर्सियों पर बैठे थे, वह ठंडे बर्फीले मंच से सटी हुई थीं, फिर भी गर्मी की तपन से जी घबरा रहा था। सारा वातावरण वासना की गंध से बुरी तरह बोझिल था।
युवावस्था का एक दौर था जबकि रंगमंच के प्रति बड़ा आकर्षण रहा करता था । सामान्य आकर्षण ही नहीं, गहन आसक्ति थी । विपश्यना के शिविर-पर-शिविर लेते हुए किसी शिविर में एक अनुभूति इतनी गहरी हुई कि यह आसक्ति सांप की पुरानी के चुली की तरह सहजभाव से उतर गयी। आकर्षण विकर्षण में बदल गया । निर्वेद में बदल गया। गुरुदेव इस बात को खूब जानते हैं। फिर यहां क्यों भेजा भला? आश्रम से सीधे घर जाते, अपनी तपस्या का पुण्य सब को वितरण करते! कितनी प्रसन्नता होती!

ऐसे चिंतन में मन डुबकियां लगा रहा था, इतने में तालियों की गड़गड़ाहट के बीच अधनंगी नर्तकियों की एक लम्बी कतार बर्फ जमे मंच पर स्केटिंग करती हुई सामने आयी। दर्शकों के मन आह्लादित थे। पर मैंने देखा कि इस घुटनभरे वातावरण में कामवासना की गंध और तीव्र हो उठी। आंखें जलने लगीं, जी मतलाने लगा। कहीं वहीं उल्टी न हो जाय। बगल में बैठी धर्मपत्नी की ओर देखा तो उसका भी बुरा हाल । कही बेहोश होकर गिर न पड़े। जिस प्रथम पंक्ति में हम बैठे थे, उसमें समाज के अनेक प्रतिष्ठित लोग बैठे थे, जिनमें से कितने ही परिचित थे। हमारी वजह से कहीं कोई बेतुका सीन न खड़ा हो जाय, लोगों का आमोद-प्रमोद किर-किरा न हो जाय । अतः दोनों शीघ्रतापूर्वक बाहर निकल आए। बच्चे कुछ न समझ पाए। वे भी हमारे साथ-साथ बाहर निकल आए। शीघ्रतापूर्वक कार से घर पहुँचकर चैन की सांस ली। दोनों के दोनों ही अत्यंत अप्रिय अनुभूतियों में से गुजरे, जिसकी याद भुलाए नहीं भूलती। देर तक भीतर ही भीतर अनित्य बोध पुष्ट होता रहा। उन नर्तकियों और दर्शकों के प्रति मैत्रीभाव जागता रहा।

दूसरे दिन सायंकाल सदा की भांति आश्रम पहुंचे। गुरुदेव को नमस्कार कर बैठते ही उन्होंने पूछा, “कल का अनुभव कैसा रहा?”

हमने आपबीती कह सुनाई। गुरुजी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा, “मैंने इसीलिए तुम दोनों को भेजा था। मुझे यह देखना था कि तुम दोनों बाहरी वातावरण के प्रति कितने संवेदनशील हो गए हो! यहां की तीव्र पावन तरंगों से निकलकर वहां की तीव्र दूषित तरंगों में जाते ही दोनों का अन्तर अधिक स्पष्ट मालूम होता है और तब उन अकुशल तरंगों के प्रति जागा निर्वेद अधिक बलशाली होता है। उसका आकर्षण जड़ों से निकल जाता है।

प्रसन्न मुद्रा में उन्होंने कहा, अच्छा हुआ, दोनों सफल हुए। साधु! साधु!! साधु!!!"

हमने भी मन ही मन साधुवाद दिया। धन्य हैं ऐसे अद्भुत गुरुदेव!

ऐसी ही एक और घटना -
किसी एक शिविर में मैं अकेला ही सम्मिलित हुआ था। पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण धर्मपत्नी घर पर ही रही। परन्तु शिविर समापन के दिन सायंकाल मुझे लेने आयी । कृतज्ञतापूर्ण वंदना के पश्चात् जाने लगे तो गुरुदेव ने आदेश दिया -“सीधे घर मत जाना । पहले श्वेडगोन पगोड़ा जाकर अमुक मूर्ति को नमस्कार करना। तब घर जाना।

अजीब सा लगा। ऐसा आदेश पहले कभी नहीं दिया था।
फिर भी यह समझकर चले कि उस दिन वाले नृत्य-क्रीड़ांगन देखने जाने से तो यह कहीं अच्छा ही है।

श्वेडगोन पगोड़ा के चारों ओर फैले विशाल प्रांगण पर अनेक मन्दिर बने हैं, जिनमें सैकड़ो बुद्धमूर्तियां है। जिस किसी में श्रद्धासार्मथ्य जागा, उसी ने खाली जगह देख कर कोई मूर्ति स्थापित कर दी । सदियों से ऐसा होता रहा। अतः छोटी-बड़ी अनेक मूर्तियां हैं। वहां। गुरुदेव ने बड़े विस्तार से समझाया कि हम कौन सी सीढियों से चढ़कर प्रांगण के किस भाग में, किस मंडप में, किस दिशाभिमुख, कौन सी मूर्ति को नमस्कार कर घर लौटें।

श्वेडगोन के विशाल चैत्य के तले भगवान बुद्ध की केश-धातु प्रतिष्ठित है। अतः सारे वातावरण की तरंगें स्वभावतः सुखद हैं, इसमें कोई संदेह नहीं । पगोडा के चारों ओर स्थित विशाल परिक्रमा प्रांगण से लगभग पन्द्रह फुट ऊंचा एक खुली छतनुमा चबूतरा है। जिस पर से पगोडा का निर्माण आरंभ हुआ है। इस खुली छत पर जाने की सीढियों पर ताला लगा रहता है। परन्तु ट्रस्टियों से घनिष्टता होने के कारण कुछ अन्य साधकों की भांति मेरे लिए भी यह ताला यदा-कदा खोल दिया जाता था। बहुत बार सायंकाल उस छत के पवित्र वातावरण में एकांत साधना का रसास्वादन कर चुका था। अतः गंभीर साधना के बाद श्वेडगोन जाकर नमन करना मानस को बुरा नहीं लगा।

परिक्रमा प्रांगण पर पहुँचकर जो स्थान गुरुजी ने बताया और जिस मूर्ति का हवाला दिया था, उसे ढूंढ़कर वहीं पहुँचे। बड़ी श्रद्धापूर्वक नमस्कार किया। परन्तु यह क्या ? पहले ही नमस्कार में यों लगा जैसे रीढ़ की हड्डी में किसी ने पिघला हुआ शीशा ढाल दिया हो । पीठ और कमर इस कदर अकड़ गयी कि झुका हुआ सिर उठाना मुश्किल हो गया । जैसे-तैसे बहुत बलपूर्वक तीन बार नमन करके घर लौटा। देखा धर्मपत्नी का भी बुरा हाल था। पर उसका तो सुबह होते-होते ठीक हो गया, मेरे लिए रात जिस पीड़ा में बीती, दिन भी उसी प्रकार अकड़न भरी पीड़ा में ही बीता। यद्यपि अनित्य बोध के साथ समता बनाए रखने में सतत प्रयत्नशील बना रहा।

उस दिन सायंकाल जब गुरुजी की सेवा में पहुंचे तो उन्हें झुक कर प्रणाम करना कठिन हो गया, फिर भी मनोबल से तीन बार नमन किया।

गुरुजी मेरी ओर देखकर जोर से हँसे और पूछा, “क्या हुआ रे!” मैं चुप रहा। गुरुजी ने फिर पूछा! मैं फिर चुप रहा ।

बर्फ पर नंगे नाच की एक झलक मात्र देखकर जो बुरा हाल हुआ था, उसका व्योरा तो बड़ी जल्दी कह सुनाया था, परन्तु अब तो बड़ा असमंजस था। गुरुजी जन्मतः बौद्ध और सभी बौद्धों की भांति उनकी भी श्वेडगोन के प्रति अपार श्रद्धा भक्ति। कैसे कहूं कि वहां के वायुमंडल से पीड़ित हुआ। उन्हें कितना बुरा लगेगा। इसलिए बोल न सका। अत: मौन रहने के सिवाय कोई चारा नहीं था।
चनक पड़ जाने से कमर जिस प्रकार अकड़ जाती है, वैसी अकड़न भरी अवस्था गुरुजी देख रहे थे। उन्होंने हँसकर प्रोत्साहन देते हुए पूछा -“जो भी अनुभव हुआ हो, वही बता । संकोच न कर।"

मैंने कहा -“गुरुदेव मेरी कमर अकड गयी है। हो सकता है कोई मोच आ गयी होगी।”
 “नहीं रे, कोई मोच-वोच नहीं। यह वहां झुक ने का परिणाम है। साधु! साधु!! साधु!!! 

शिविर समाप्त होते ही मैंने तुझे वहां इसीलिए भेजा था कि तू वातावरण की तरंगों के प्रति कितना संवेदनशील हुआ है, यह जांचें। ‘हॉलीडे ऑन आइस' के खेल में हो सकता है कि तेरा मानस पूर्वाग्रह से प्रभावित होकर व्याकुल हुआ हो । परन्तु यहां पूर्वाग्रह हो तो भी सकारात्मक ही होगा। अतः तुम्हारी संवेदनशीलता की सही परीक्षा हो गयी।"

 “परन्तु गुरुदेव! श्वेडगोन की खुली छत पर मैं बहुत बार ध्यान करने बैठा हूं। बहुत सुखद और सूक्ष्मतम अनुभूतियां हुई हैं। मंदिर के अनेक भागों में भी अनेक बार गया हूं, पर ऐसा अप्रिय अनुभव तो कभी नहीं हुआ। इस बार ऐसा क्यों हुआ?”

शंका का समाधान करते हुए उन्होंने समझाया। अच्छे से अच्छे वातावरण वाले क्षेत्र में भी कोई स्थान ऐसा हो सकता है, जहां बार-बार मैली तरंगों का प्रजनन होते रहने के कारण प्रदूषण बढ़ जाय।

 “क्या उस मूर्ति के सामने एक पत्थर रखा हुआ था ?” उन्होंने पूछा । मुझे याद आया। हां नदी के बहाव में घिसा हुआसा ८-१० इंच के व्यास का एक अनगढ़ पत्थर वहां पड़ा था।

"हां, भगवान बुद्ध की मूर्ति को नमन करते हुए मैंने इसी पत्थर पर अपना माथा टेका था।"

गुरुजी ने हँसते हुए बताया, इस स्थान पर लोग अपनी-अपनी लोकीय मनोकामनाएं पूरी करने के लिए याचना करने जाते हैं। अपना मनोरथ पूरा करने के लिए इस पत्थर को उठाते हैं। यदि वह हल्का लगे तो मनोरथ सिद्ध होगा, भारी लगे तो नहीं । ऐसी लोक मान्यता है। ऐसे स्थान का सारा वातावरण रागमयी तरंगे प्रजनन करनेवाला है। जो आए, वह तृष्णा ही जगाऐगा। राग ही जगाएगा। जन्म-जन्मांतरों के भव-संस्कारों के बोझ को उतारता हुआ वीतरागता की गहरी विपश्यना साधना करके इतना हल्कापन महसूस करके गया हुआ व्यक्ति उस वातावरण में से गुजरेगा तो उसे ऐसा भारीपन लगेगा ही। सर्वथा विपरीत स्वभाववाली तरंगे। कहां वीतरागता की पावन तरंगे और कहां रागमयी दूषित तरंगें। तुम पीडित हुए परन्तु अनित्य बोध के आधार पर समता बनाए रखने की कोशिश करते रहे। चलो, तुम्हारा परीक्षण सफल हुआ। गुरुदेव बहुत प्रसन्न थे। सचमुच धन्य हैं! ऐसे अद्भुत गुरुदेव और धन्य हैं! उनके ऐसे अद्भुत प्रशिक्षण! परीक्षण! धन्य हुए हम जो ऐसे सन्त की संगत से कल्याणलाभी हुए।

Monday, July 27, 2020

सद्गृहस्थ के चार लौकिक सुख

भगवान ने कहा
1- गृहस्थ धन-उपार्जन करे परंतु अपने परिश्रम से, ईमानदारीपूर्वक, न्याय-नीतिपूर्वक, धर्मपूर्वक, बिना किसी को धोखा दिये।

अगर उपार्जन में उसने कभी कोई श्रम नही किया अथवा जिसे उसने अनीतिपूर्ण ढंग से हासिल किया तो वह सम्पदा उसके सही सुख का कारण नही बन सकती। ऐसा व्यक्ति गृहस्थ के इस प्रथम सुख से वंचित रह जाता है।

2-दूसरा लोकीय सुख है- अपनी मेहनत और ईमानदारी से कमाई हुई सम्पदा का उचित उपभोग और संविभाजन यानी दान द्वारा सदुपयोग।

यदि कोई गृहस्थ अपनी कमाई हुई सम्पदा का लोभ और कंजूसीवश कोई उपयोग नही करता, न अपने लिये, न औरो के लिये तो ऐसा व्यक्ति सद्गृहस्थ के दूसरे सुख से वंचित रह जाता है।
यदि कोई गृहस्थ नासमझीवश अथवा असावधानीवश अपनी कमाई हुई सम्पदा किसी अन्य व्यक्ति के प्रभुत्व में दे देता है, और परिणामस्वरूप आवश्यकता पड़ने पर स्वयं अपने परिवार के भरण-पोषण के लिये अथवा लोक कल्याणहित दान देने के लिये भी उसमे से कुछ नही प्राप्त कर सकता तो वह भी गृहस्थ जीवन के इस दूसरे सुख से वंचित रह जाता है।

3-सद्गृहस्थ का तीसरा लोकीय सुख है- ऋण मुक्ति का सुख।

यदि कोई गृहस्थ नासमझी से अथवा परिस्थितियों से मजबूर होकर ऋण ले लेता है और ऋण की अदायगी नही कर पाता तो गृहस्थ जीवन के तीसरे सुख से वंचित रह जाता है। उऋण रहने का अपना सुख है। ऋणमुक्त होकर ही कोई यह सुख भोग सकता है।

4-सद्गृहस्थ का चौथा लोकीय सुख है- शील पालन।
बड़ा सुख है शील पालन में।
कोई व्यक्ति नासमझी या असावधानी के कारण दुराचारी हो जाता है, और हिंसा, चोरी, व्यभिचार, झूठ या नशा सेवन में से किसी एक या एक से अधिक का सहारा लेकर अपना शील नष्ट कर लेता है तो वह शील पालन के इस अतुल सुख से वंचित रह जाता है।

https://www.dhamma.org/en/courses/search

Monday, July 20, 2020

आत्मज्ञान

एक दिन आनंद और तथागत भिक्षा के लिए एक गाँव जा रहे थे । वह एक झरने से गुजरे जहाँ हाल ही में कुछ पशु नहाकर निकले थे । तथागत और आनंद थोड़े ही आगे निकले और एक पेड़ की छाँव में बैठ गये ।
तथागत बोले – “ आनंद ! पीछे वाले झरने से जरा पानी ले आओ । मुझे बड़ी जोर की प्यास लगी है ।” आनंद ने कमण्डलु उठाया और पानी लेने चल दिया । आनंद जब झरने के पास पहुँचा तो देखा कि उसमें बिलकुल गन्दा पानी आ रहा है । आनंद वापस आया और बोला – “ भगवान् ! झरने का पानी तो बिलकुल गन्दा है । आप आज्ञा दे तो मैं नदी से ले आऊ ?”

तथागत ने कहा – “ नहीं ! तुम झरने से ही लाओ । अब ठीक हो गया होगा ।” आनंद फिर से झरने पर गया । इस बार पानी थोड़ा ठीक था लेकिन फिर भी पीने योग्य नहीं था । अतः आनंद फिर से खाली हाथ ही लौट आया और बोला – “ भगवान् ! पानी तो अब भी गन्दा है । मैं नदी से ले आता हूँ ।”

तथागत बोले – “ तुम थक गये होगे, थोड़ी देर विश्राम कर लो । फिर ले आना ”  थोड़ी देर बाद तथागत ने फिरसे उसे झरने पर पानी लेने भेजा । वह जैसे ही झरने पर पहुंचा । इस बार पानी एकदम स्वच्छ था । उसने अपना कमण्डल भरा और ख़ुशी – ख़ुशी चल दिया ।

तथागत ने पूछा – “ अब पानी कैसा है ? आनंद !” उसने कहा – “ अब तो स्वच्छ है, भगवान्, लेकिन ये चमत्कार कैसे हुआ ?”

तथागत बोले – “ आनंद ! ये कोई चमत्कार नहीं, सब्र का फल है । जानवरों ने पानी में हलचल की जिससे नीचे की धुल और मिट्टी ऊपर आ गई और पानी गन्दा हो गया । जब पहली बार तुम झरने पर गये, उस समय धुल मिट्टी पानी में घुली होने से पानी गन्दा दिखाई दे रहा था । जब तीसरी बार गये तब तक मिट्टी नीचे सतह में जम गई और पानी स्वच्छ हो गया । यही तुम्हारे उस प्रश्न का उत्तर है, जो तुम मुझसे अक्सर पूछते रहते हो ।”

आनंद बोला – “ कैसे भगवान् ?”

तथागत बोले – “ आनंद ! हमारा मन भी उसी झरने की तरह है । जिसमें प्रतिदिन हर पल काम , क्रोध ,  मोह , माया , वासना , के कुविचारों के कितने ही पशु उछलकूद मचाते है । इन कुविचारों और कुसंस्कारों के कारण तुम्हारा मन अस्थिर और अपवित्र होते रहता हैं । ( ध्यान - साधना )  से हम उन कुविचारों और कुसंस्कारों के पशुओं को मन से बाहर करते है और ( ध्यान - साधना ) से मन को स्थिर, शांत और पवित्र करते है । जब तक मन स्थिर, शांत और पवित्र नहीं हो जाता, ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती । इसलिए आनंद ! जब तुम्हारा मन स्थिर होकर समाधिस्थ हो जायेगा । तब तुम्हें स्वतः आत्मज्ञान की उपलब्धि हो जाएगी ।

Sunday, July 19, 2020

शुद्ध धर्मपथ की मंजिलें -- श्री सत्यनारायण गोयन्का

 मेरे प्यारे साधको,
आओ, शुद्ध धर्मपथ (धर्म) को समझें ! शुद्ध धर्मपथ की मंजिलों को समझें!
यह भी समझें की शुद्ध धर्म के पथ पर भी ऊंच-नीच का भेदभाव होता है। यह कैसे होता है ? यह भेदभाव जात-पांत पर आधारित नहीं होता। संप्रदाय पर आधारित नहीं होता। यह धर्मपथ की मंजिलों पर आधारित होता है। चार मंजिलें हैं धर्मपथ की।

पहली मंजिल है शील की, दूसरी है समाधि की, तीसरी है प्रज्ञा की और चौथी है विमुक्ति की। 
कोई एक व्यक्ति ऐसा होता है जो धर्मपथ की मंजिलों की चर्चा प्रशंसा तो बहुत करता है। उन पर पुस्तकें लिखता है, उनकी अच्छाइयों के बारे में लोगों से खूब बहस करता है पर स्वयं पथ पर नहीं चलता। एक कदम भी नहीं चलता। 

कोई दूसरा व्यक्ति ऐसा होता है जिसने शुद्ध धरम के बारे में सुना है। सुनकर उससे प्रभावित हुआ है और धर्मपथ पर चलने लगा है। चलते-चलते पहली मंजिल पर पहुंच गया है। शील सदाचार का जीवन जीने लगा है परंतु अभी उसने समाधि का अभ्यास नहीं किया, प्रज्ञा का अभ्यास नहीं किया। 
धर्म के पथ पर यह दूसरा व्यक्ति निश्चय ही पहले व्यक्ति से आगे है इसलिये पहले के मुकाबले महान है।

कोई तीसरा व्यक्ति ऐसा होता है जो धर्मपथ पर चलते हुए शील में तो प्रतिष्ठित हुआ ही, धर्मपथ की अगली मंजिल समाधि तक भी पहुँच गया, यानी, उसकी चित्त-एकाग्रता भी सबल हो गयी। धर्मपथ पर ऐसा तीसरा व्यक्ति उस दूसरे व्यक्ति से महान ही है जो कि अभी शील की मंजिल तक ही पहुँचा है और पहले व्यक्ति से तो बहुत अधिक महान है जो कि अभी शीलवान भी नहीं बन पाया। 

कोई चौथा व्यक्ति ऐसा होता है जो कि धर्मपथ पर चलते हुए न केवल शील की और समाधि की ही मंजिल तक पहुँचा है, प्रत्युत प्रज्ञा की मंजिल तक भी जा पहुंचा है। यानी, शीलवान, समाधिवान ही नहीं प्रज्ञावान भी हो गया है। ऐसा व्यक्ति उस तीसरे व्यक्ति से कहीं महान है जो कि अभी समाधि की मंजिल तक ही पहुँचा है। पहले से तो वह महान है ही जो कि शीलवान भी नहीं और दूसरे से भी महान है जो कि शीलवान है पर समाधिवान नहीं।

ऐसे ही कोई पांचवां व्यक्ति ऐसा होता है जो धर्मपथ की अंतिम मंजिल तक पहुँच गया। वह शील, समाधि और प्रज्ञा में पुष्ट होकर विमुक्ति रस भी चख चुका । यानी, निर्वाणदर्शी भी हो गया। 
ऐसा व्यक्ति उस चौथे व्यक्ति से तो महान है ही जो कि शीलवान है, समाधिवान है, प्रज्ञावान है फिर भी अभी तक इंद्रियातीत निर्वाण का दर्शन नहीं कर सका है। परंतु पहले, दूसरे और तीसरे व्यक्ति से कहीं महान है जो कि अभी बहुत पिछड़े हुए हैं।

इस प्रकार क्रमश: धर्मपथ से दूर रहने वाले व्यक्ति से शीलवान, शीलवान से समाधिवान और शील-समाधिवान से शील-समाधि-प्रज्ञावान अधिक महान है और शील-समाधि-प्रज्ञावान से वह व्यक्ति और अधिक महान है जो कि शील-समाधि-प्रज्ञावान होते हुए विमुक्त भी हो चुका है।

इस प्रकार धर्मपथ पर महान और क्षुद्र का भेदभाव है ही, ऊंचनीच का भेदभाव है ही। पर यह भेदभाव व्यक्ति के जन्म के कारण नहीं। किसी भी जाति, वर्ण, गोत्र और देशकाल में जन्मा हुआ व्यक्ति हो, वह इन पांचों व्यक्तियों में से कोई भी एक हो सकता है या पांचों। धर्मपथ की ऊंची से ऊंची मंजिल तक पहुँचने में भी जन्म कोई बाधा नहीं पैदा कर सकता। कोई भी व्यक्ति अपने पुरुषार्थ, परिश्रम से धर्म की अंतिम मंजिल तक पहुँच सकता है। उसके लिए कहीं कोई रुकावट नहीं। रुकावट है तो केवल उसकी अपनी कमजोरियों की, उसके अपने प्रमाद की। इन्हें दूर कर ले और काम में लग जाय तो कदमकदम धर्मपथ पर आगे बढ़ता ही जायगा। नीच से ऊंच बनता ही चला जायगा। उसे कोई नहीं रोक सकता।

साधको! जातिवाद की मिथ्या मान्यताओं को और संप्रदायवाद की: बाधक बेड़ियों को तोड़कर आओ! शुद्ध धर्मपथ पर कदम-कदम चलते रहें और विमुक्त अवस्था तक पहँचकर अपना मंगल साध लें ।

नवंबर 2019 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित
(विपश्यना पत्रिका वर्ष-18, अंक 6, मार्गशीर्ष पर्णिमा. 23-12-1988 से साभार)

धर्म क्या है ? - सत्यनारायण गोयन्का

    आओ , आज  की इस धर्म सभा में पहले तो यह समझें कि धर्म क्या हैं ? और फिर यह समझें कि हम धर्म क्यों धारण करें ?  और फिर यह भी समझें कि  धर्म धारण करें तो कैसे धारण करें  ?
   इन तीन दिनों की विख्यान माला में इन्हीं विषयों का प्रतिपादन किया जायगा । तो आज समझें - धर्म क्या हैं  ?
  
    सारे भारत का बहुत बड़ा दुर्भाग्य रहा कि पिछले १५०० वर्ष या यूँ कहें दो हजार वर्षों से धर्म शब्द का जो सही रूप था , सही अर्थ था , उसे खो बैठे । धर्म का सही अर्थ ही नहीं मालूम होगा तो उसे धारण कैसे करेंगे ? अब तो धर्म शब्द के साथ बैसाखीयां लग गयीं । मानो धर्म को कोई सहारा चाहिए । इस समुदाय का अलग धर्म, इस समुदाय का अलग धर्म , तो किसी को कहा बौद्ध धर्म ,  किसी को हिन्दू  धर्म , जैन धर्म , सिख धर्म , ईसाई धर्म इत्यादि ।

    धर्म को बैसाखी की जरूरत नहीं होती । धर्म को किसी अन्य के साहारे की जरूरत नहीं होती ।
धर्म तो स्वयं सहारा देने वाला हैं, उसको किस सहारे की जरूरत हैं ? लेकिन जब नासमझी से धर्म शब्द के साथ ये बैसाखीयां (crutches ) जोड़ दी जाती हैं तो बैसाखीयां प्रमुख हो जाती हैं , धर्म बेचारा गौण हो जाता हैं । धर्म नेपथ्य में , अंधेरे में चला जाता है । दुर्भाग्य से यही होने लगा ।

    पुरातन भारत में धर्म कहते थे - धारण करें सो धर्म । धारेती' ति धम्मं । क्या धारण करें ? हमारा चित्त जिस किसी चित्त वृत्ति को धारण करेगा , उस समय वह उस चित्त का धर्म हैं । अपना स्वभाव धारण करता है । अपना लक्षण धारण करता है । जो चित्त वृत्ति मैंने अपने चित्त पर इस समय धारण की उसका स्वाभाव क्या है ? यानी, धर्म का दूसरा अर्थ - स्वभाव , प्रकृति , निसर्ग , ऋत ; बहुत पुराना अर्थ था ।' स्वभाव' आज भी कभी - कभी इसी अर्थ में प्रयोग में आ जाता है , जब हम कहते हैं कि अग्नि का धर्म हैं जलना और जलाना माने इसका स्वभाव है ।अगर वह जलती नहीं और उसकी लपेट में जो आ जाय उसे जलाती नहीं तो वह अग्नि नहीं , कुछ और हैं । ऐसे ही कह सकते हैं बर्फ का स्वभाव है शीतल होना और शीतल करना । अगर वह स्वयं शीतल नहीं होती और उसके समीप जो आये उसको शीतल नहीं करती तो बर्फ नहीं , कुछ और हैं । 

    आज भी कभी - कभी कहते हैं कि सारे प्राणी मरणधर्मा हैं , व्याधीधर्मा हैं , जराधर्मा हैं - यह स्वभाव है । इस  अर्थ में धर्म का जब प्रयोग किया जाता हैं तब धर्म समझ में आने लगता है । मैंने अपने चित्त में जो चित्त वृत्ति धारण की , उसका कैसा धर्म । मैंने अपने चित्त में मैल जगाया , क्रोध , द्वेष , दुर्भावना , ईर्ष्या , अहंकार कोई भी  विकार जगाया , इनका क्या स्वभाव है ? 
    हमारे देश के मुनियों , ऋषियों , महापुरुषों , सद्गरुओं , अरंहतो , बुद्धों  ने , सम्बुद्धों ने यही खोज की  कि इस समय चित्त में जो जागा , उसका क्या स्वभाव है ।
    
     क्रोध , द्वेष , दुर्भावना , ईर्ष्या , अहंकार  कोई भी विकार जागे , बहुत जलन पैदा होती हैं । बहुत व्याकुलता पैदा करता है ।यह स्वभाव है उसका । मुझे क्रोध भी आये और भीतर व्याकुलता नहीं हो तो वह क्रोध नहीं है , कब और हैं । क्रोध , द्वेष , दुर्भावना आदि जागी हैं तो व्याकुलता उसके साथ - साथ आयेगी ही इसे सहजात कहा , यानी , यह  दुःख एक  साथ जन्मता हैं ।

    जिस पात्र में हमने जलते हुए अंगारे रखे , वे पहले उस पात्र  को जलाते हैं , तपाते हैं और फिर आसपास के वातावरण को संतापित करने लगते हैं । जो भी उस वातावरण में आयगा तपन महसूस करेगा । ऐसे ही जिस पात्र में बर्फ रखें , उसका पहला काम या स्वभाव हैं पहले उस पात्र को शीतलता प्रदान करेगी और फिर आसपास के वातावरण में शीतलता विस्तारीत करेगी । यह स्वभाव है ।

    हमारे देश के ऋषियों , मुनियों ने यह बात देख ली कि जब - जब मनुष्य अपनी नासमझी में, नासमझी ही हैं भाई , कोई समझ करके अपने आप को क्यों जलायेगा ? कोई समझता हुआ अपने को क्यों व्याकुल करेगा ? नासमझ हैं इसलिए अपने मानस में क्रोध , द्वेष , ईर्ष्या , अहंकार या अन्य कोई विकार जगाया तो जलने लगा । क्योंकि हमने पात्र मे जलते हुए अंगारे डाल दिये और अंगारों का तो यही स्वभाव है । उसकी जगह यदि उसमें बर्फ रखे , क्या बर्फ रखें ? मैत्री , करुणा, सद्भावना जैसी चित्त वृत्तियां डालें तो देखेंगे भीतर ही भीतर इतनी शांति ,इतनी शीतलता ! क्योंकि वह उसका स्वभाव है । 

    सभी सद्वृत्तियों का यही स्वभाव है कि वे हमें भीतर बहुत शांति प्रदान करेगी , बहुत शीतलता प्रदान करेगी और फिर आसपास के सारे वातावरण में शांति और शीतलता भर देंगे ।

   जब आदमी क्रोध जगाता हैं तब उस क्रोध  का पहला शिकार वह स्वयं होता हैं । औरों को तो पीछे व्याकुल करेगा , पहले खुद व्याकुल हो जायगा और फिर व्याकुलता बिखरने लगेगी । जब मैं क्रोध जगाऊं तो उस समय मेरे संपर्क में जो आये , वही बेचारा व्याकुल हो जायगा । सारे वातावरण को तनाव से भर दूंगा । मैंने जो चित्तवृत्ति जगाई हैं उसका यह स्वभाव है , धर्म हैं , वह अपना धर्म प्रकट करेगी ।  क्योंकि ऐसी चित्तवृत्ति जगायी हैं जो व्याकुलता पैदा करने वाली हैं ।मेरे लिए भी व्याकुलता , औरों के लिए भी व्याकुलता । यह होश जाग जाय तो जानबूझ कर कौन अपने आप को व्याकुल करेगा ?

    एक नन्हा - बच्चा , जो अबोध है , उसे अभी होश नहीं है । अपनी नासमझी में वह जलते हुए अंगारों पर हाथ रख देता है, हाथ जलता हैं तो हाथ पीछे खींचता हैं , इतना तो जान गया कि इससे हाथ जलता हैं , हाथ पीछे खींचता हैं । कभी नासमझी में फिर हाथ रख दिया , फिर जला , फिर हाथ पीछे कर लिया । एक बार हुआ , दो बार हुआ , पांच बार हुआ , दस बार हुआ , अब वह समझ गया, ये अंगारे  हैं इनको नहीं छूना चाहिए । यह आग हैं इसे नहीं छूना चाहिये। 

   एक नन्हा सा बच्चा भी समझ जाता है और हमारी नासमझी देखो ! अंगारे भरे जा रहे हैं भीतर , अपने को जलाये जा रहे हैं , स्वयं जल रहे हैं , औरों को जला रहे हैं लेकिन उससे छुटकारा पाने की कोशिश नहीं करते । इसलिए नहीं करते कि जब हमारे भीतर क्रोध , द्वेष , दुर्भावना , अहंकार, ईर्ष्या या कोई भी विकार जागता हैं तब उस  समय जिस व्यक्ति पर , जिस घटना पर जागा, हमारे मानस में वही घूमता रहता है  । किसी पर मुझे क्रोध आया क्योंकि उसने मेरा अपमान किया । कोई ऐसा काम किया जो मेरे लिए अनचाहा हैं , या मेरे मनचाहें काम में कोई बाधा पैदा कर दी तो मुझे क्रोध आया । तब मैं कहू्ंगा - स्वाभाविक है , क्रोध तो आयगा ही , और क्या होगा ? 

    अरे, क्या स्वाभाविक है भाई ! तू करने क्या लगा ? तू क्रोध तो उस पर पैदा कर रहा है , जिसने तेरे काम में कोई अडचन पैदा की , तेरी इच्छाओं की पूर्ति होने में कोई बाधा पैदा की, और जला रहा है अपने आप को । क्योंकि देख नहीं पाये कि क्रोध जगाया तो मेरे भीतर क्या होने लगा ? यह देखना ही भूल गये । जब किसी दूसरे व्यक्ति पर , दूसरी घटना या स्थिति पर क्रोध जगाया , तब बार - बार मन उसी पर जाता है । उसने मेरा इतना अपमान किया , ऐसा कहा , यह बात ऐसी हो गयी .....। मानस बहिर्मुखी हैं , बाहर की सच्चाई की ओर वह झुका हुआ हैं । मेरे भीतर क्या होने लगा, यह देखना ही बंद कर दिया ।
    भारत में इस देखने की विद्या को  विपश्यना  कहते थे ।यह बहुत प्राचीन , बहुत पुरानी विद्या है - अपने आप को देखना है । अपने भीतर क्या हो रहा है, वह ज्यादा जरूरी है । बाहर क्या हो रहा है , इससे हम अनजान नहीं रहेंगे , उसको भी जानना है ; पर उससे ज्यादा जरूरी यह जानना कि अमुक घटना घटने से , अमुक व्यक्ति या अमुक स्थिति के संपर्क में आने से , मेरे भीतर क्या होने लगा ? 

   जिस दिन अच्छी तरह से यह देखना आ जाता है तब धर्म समझ में आने लगता है । वह धर्म जिसके साथ कोई बैसाखीयां नहीं लगीं । शुद्ध धर्म समझ में आने लगता है ।  अरे भाई , स्वभाव है न, मैंने मन को विकारों से विकृत किया तो इन विकारों का स्वभाव है - व्याकुल ही बनायेंगे । और देखने लगा तो एक बार देखेगा , दो बार देखेगा , दस बार देखेगा । बाद में हर घटना से काट करके अपने भीतर देखने लगेगा । अभी तो कहता है कि बाहर जो घटना घटी  इसकी वजह से मेरे मन में क्रोध , द्वेष , दुर्भावना या जो भी विकार जागा, उसका आलंबन बाहर का हैं । उसे एक बार दुर करके देखें - मेरे भीतर क्या होने लगा ? मैंने जो यह क्रोध की प्रतिक्रिया की, तब क्या होने लगा ? अरे जलने लगा न ! बड़ा व्याकुल होने लगा रे !  ऐसा एक बार, दो बार , दस बार देखेगा, स्वभाव पलटना शुरू हो जायगा । तो धर्म धारण करने लगा । अब वह समझ गया कि धर्म क्या हैं ?  हम विकोरों से विकृत न हो , यह धर्म हैं । ऐसे ही हम विकारों के बजाय अपने मानस में सद्गुण  पैदा करें , मन में मैत्री , करुणा, सद्भावना जगायें तब देखेंगे भीतर इतना सुख , इतनी शांति , इतनी शीतलता ! बाहर के किसी व्यक्ति पर करुणा , मैत्री जगायी, अरे , इतना सुख , इतनी शांति , इतनी शीतलता ! 

    अब अनुभव से जानने लगा तब धर्म सही माने में धर्म हो गया । धारेती ' ति धम्मं । अब धारण कर रह हैं । समझ रहा है - अग्नि को धारण करुंगा तो जलुंगा ही । दुनिया की कोई शक्ति मुझे नहीं बचा सकती और बर्फ धारण करुंगा शीतल होऊंगा ही , दुनिया की कोई बाधा उसमें व्यवधान नहीं डाल सकती । प्रकृति का नियम है । यहीं ऋत, यही विश्व का विधान , कुदरत का कानून है जो सब पर लागू होता है । अपने को चाहे जिस नाम से पुकारे , कोई फर्क नहीं पड़ता । कोई भी आदमी जलते हुए अंगारों पर हाथ रखे तो अंगारे इस बात को नहीं देखते कि यह आदमी अपने को हिन्दू कहता है कि बौद्ध..... उससे कोई लेन - देन नहीं । अग्नि का स्वभाव है, वह जलायगी ही । बर्फ पर हाथ रखा तो शीतल करेगी ही । जिस दिन धर्म का यह सार्वजनिन स्वरूप प्रकट होने लगता है , उस दिन बहुत बड़ा लोक कल्याण होना शुरू हो जाता हैं । और इसे भूल कर बाहर - बाहर के आलंबनों को महत्व देना शुरू कर दिया , तब अपने आप को सुधारने का काम बंद कर दिया । धर्म से दुर जाने लगे । ऊपर - ऊपर से यह भ्रम होता हैं कि मैं बहुत धार्मिक हूं , लेकिन जब होश जागे तब देखेगा कि कहा धार्मिक हूं । मैं तो जब देखो तब विकार जगाता हूं । मुझे धर्म का जरा - सा ज्ञान नहीं ,  मुझे धर्म का जरा - सा होश नहीं , मै धर्म धारण नहीं करता । मैं अपने मन को मैला करते रहता हूं , व्याकुल होते रहता हूं तथा औरों को व्याकुल करते रहता हूं ।तब मैं धार्मिक कैसे हुआ ? अब सोचेगा , क्योंकि धर्म की सही बात समझ में आने लगी ।

    हर समाज की अपनी - अपनी परंपरायें चली आ रही हैं । लोग अपने - अपने तीज  - त्योहार मनाते हैं , व्रत - उपवास करते हैं , कर्म - कांड करते हैं , पर्व - त्योहार मनाते हैं , मनाएं । अपनी - अपनी वेश - भूषा, दार्शनिक मान्यता ..., ये सब अलग - अलग हैं । इसलिए अलग - अलग समाज हैं , अलग - अलग सम्प्रादाय हैं , समूह हैं , समुदाय हैं , कोई बुरी बात नहीं । परंतु समझें कि इनसे धर्म का कोई लेन - देन नहीं । ये सब तो सामाजिक आमोद - प्रमोद के लिए हैं , करने चाहिए , लेकिन धर्म के साथ इसे जोड़ देंगे तो धर्म से दूर होते चले जायेंगे ।    

-विश्व विपश्यना आचार्य 
 श्री. सत्यनारायण गोयन्का

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Friday, July 17, 2020

प्रश्न उत्तर -- श्री सत्यनारायण गोयन्का

प्रश्न :- सही  गलत काम वासना में क्या अंतर है क्या यह चेतना का प्रश्न है? 

स. ना. गोयन्का : नहीं, कामवासना का एक गृहस्थ के जीवन में उपयुक्त स्थान है। इसे जबरदस्ती दबाया नहीं जाना चाहिए क्योंकि लादे हुए ब्रह्मचर्य से तनाव उत्पन्न होता है जिससे और समस्याएं, कठिनाइयां बढ़ती है तथापि यदि आप अपनी कामवासना को खुली छूट देते हैं और कामुकतावश किसी के साथ भी संभोग करते हैं तब फिर आप अपने चित्त को काम वासना से मुक्त नहीं कर सकते, समान रूप से खतरनाक इन दोनों अतियों को छोड़कर धर्म एक मध्यम मार्ग प्रदान करता है, संभोग एक स्वस्थ अभिव्यक्ति है जहां आध्यात्मिक उन्नति की गुंजाइश है और वह है एक नर-नारी का याैन संबंध जो एक दूसरे के साथ प्रतिबद्ध हो। और यदि आपका सहभागी भी विपश्यी साधक है तब जब कभी कामवासना जागती है आप दोनों तटस्थ भाव से उसका निरीक्षण करते हैं यह न उसे दबाना हुआ और न खुली छूट देना। देखते देखते आप सरलतापूर्वक काम वासना से मुक्त हो सकते हैं। कभी-कभी कोई दंपत्ति अब भी यौन संबंध रखना चाहेंगे परंतु धीरे-धीरे एक ऐसे सोपान पर पहुंच जाएंगे जहां कामवासना की कोई सार्थकता नहीं रहेगी। यही वास्तविक और नैसर्गिक ब्रह्मचर्य का सोपान है जबकि चित्त में कामवासना का विचार तक नहीं जागता। यह ब्रह्मचर्यसूख यौन संतुष्टि से कहीं श्रेष्ठतर है। आप सदा संतुष्टि-सामंजस्य का अनुभव करते हैं। हमें इस वास्तविकता को सीखना चाहिए। 

प्रश्न :- पश्चिम में अनेक लोग यह मानते हैं कि परस्पर सहमति के साथ किन्ही दो वयस्कों के बीच याैन संबंध स्वीकार्य है? 

स. ना. गोयन्का : यह सोच धर्म से बहुत दूर है जो व्यक्ति आज किसी एक के साथ यौन संबंध रखता है फिर दूसरे के साथ और फिर किसी अन्य के साथ वह अपनी कामवासना को और दुःख को कई गुना बढ़ाता है आपको किसी एक के साथ प्रतिबद्ध होना चाहिए अथवा ब्रह्मचर्य का जीवन जीना चाहिए।

प्रश्न :- क्या मांस खाना शील भंग है? 

नहीं, जब तक कि आप स्वयं पशु हत्या नहीं करते हैं। यदि आपको मांस परोसा जाता है और आप किसी अन्य खाद्य पदार्थ के समान इसके स्वाद का आनंद उठाते हैं, आपने शील को नहीं तोड़ा है। परंतु इसमें संदेह नहीं कि आपने मांस खाकर अप्रत्यक्ष रूप से किसी अन्य को पशु-हत्या का शील तोड़ने के लिए प्रेरित किया है। अधिक सूक्ष्म स्तर पर आप मांस खाकर अपनी हानी करते ही है। प्रत्येक क्षण जब कोई पशु राग-द्वेष जगाता है, वह अपना निरीक्षण करने और अपने चित्त को शुद्ध रखने में समर्थ नहीं होता है, उसके शरीर का रेशा रेशा राग-द्वेष से आप्लावित हो जाता है। मांस खाते हुए आप राग-द्वेष के इस निवेश को ग्रहण करते हैं। साधक राग द्वेष का क्षय करने का प्रयास करता है इसलिए इस प्रकार का भोजन ना करने से उसे इस काम में सहायता मिलती है।

प्रश्न :- क्या इसीलिए विपस्सना शिविरों में केवल शाकाहारी भोजन दिया जाता है? 

उत्तर : हां, क्योंकि विपश्यना साधना के लिए यही सबसे अच्छा है।

प्रश्न :- क्या आप दैनिक जीवन में भी शाकाहारी भोजन की संस्तुति करते हैं?
 उत्तर : हां, यह भी सहायक है

प्रश्न :- पांचवां शील क्या है- नशीले पदार्थों से दूर रहना अथवा मदहोश नहीं होना ?देखा गया है कि बिना मदहोश हुए संयम के साथ पीना खास तौर पर हानिकारक नहीं मालूम पड़ता। अथवा क्या आप यह कहना चाहते हैं कि एक गिलास शराब पीना भी शील भंग है?'

उत्तर : अल्पमात्रा में भी पीने से, अंत में आप शराब के व्यसन का शिकार हो जाते हैं। प्रारंभ में आप यह अनुभव नहीं करते परंतु शराब पीने के व्यसनकी ओर एक कदम आप आगे बढ़ाते हैं जो सचमुच ही आपके और दूसरों के लिए हानिकारक है। प्रत्येक शराबी एक गिलास से ही शुरू करता है। दु:ख की ओर (इस एक गिलास से) पहला कदम क्यों उठाएं ? यदि आप गंभीरतापूर्वक साधना करते हैं और आप किसी दिन भूल से अथवा किसी सामाजिक समारोह में एक गिलास शराब पी लेते हैं, उस दिन आपको पता चलेगा कि आपकी साधना कमजोर है। नशे का सेवन तथा धर्म का पालन साथ-साथ नहीं होता । यदि आप धर्म में सचमुच आगे बढ़ना चाहते हैं तो आपको सभी नशीले पदार्थों से दूर रहना चाहिए। यह हजारों साधकों का अनुभव है।

Thursday, July 2, 2020

झूठ बोलने से बचना चाहिए


"धर्म दुु:खको, शोकको मिटाता है और सुख प्रदान करता है। यह सुख कौन देता है? बुद्ध नहीं देते। यह आपके अंदर जागृत अनित्य विद्या है जो सुख देती है। हमें विपश्यना का अभ्यास करना चाहिए ताकि अनित्य विद्या का ज्ञान हमेशा होता रहे, अनित्यता का दर्शन सदा प्रतिक्षण होता रहे, यह कभी अन्तर्धान न हो जाय। हमलोग कैसे अभ्यास करें? चार तत्त्वों पर ध्यान  केन्द्रित करो, शांत होकर समाधि का अभ्यास करो और शील को भंग मत करो। झूठ बोलने से बचना चाहिए, यह शील जल्दी टूटता है। मुझे दूसरो से इतना भय  नही, लेकिन झूठ बोलकर मैं अपने शील के आधार को कमजोर बनाता हूं। जब शील कमजोर हो तो समाधि भी कमजोर होगी और प्रज्ञा भी कमजोर हो ही जायगी। सत्य बोलें, नियमित अभ्यास करें, समाधि को दृढ़ बनावें और इस पर ध्यान दें कि आपके शरीर पर हो क्या रहा है। ऐसा करने से अनित्यता की प्रकृति स्वाभाविक रूप से प्रकट होगी। ..." 
— सयाजी ऊ बा खिन।
अर्थात- एक धार्मिक व्यक्ति को न झूूठ बोलना चाहिए, न कुछ छिपाना चाहिए। (सं .)
(सयाजी जर्नल में प्रकाशित सयाजी ऊ बा खिन का व्याख्यान- 'मार की दस सेनाएं '- से साभार उद्धृत)

Thursday, June 18, 2020

Keeping our Own Minds Healthy - S.N.Goenka


An Address by Mr. S. N. Goenka to Health Care Professionals
The following was condensed from an address presented at Smith College School of Social Work, Northampton, Mass., July 1991.
Friends, fellow social workers: Let us try to understand the problems faced by health care workers and the solutions to these problems. The profession of social service is a very noble profession. If one gives social service selflessly, without making it a means of livelihood, there is nothing that can surpass it. Even if one makes it a means of livelihood, this profession is a very wholesome profession, a very wholesome means of livelihood. The job of a social worker is to help others. People come to you with melancholy on their faces and anguish and pain in their hearts. You help them to come out of their pain and to enjoy real peace and joy within. What better profession can there be?
Such a noble profession; and yet, it is full of hazards. This noble effort to serve others may result in misery for you if you are not taking proper care of yourself.
Suppose a person comes to you suffering from insecurity and fear of the future. This person is generating a vibration full of agitation and unhappiness; he or she is stuck in a whirlpool of misery. After counselling this person for a period of time you may notice that you also are being sucked into this same whirlpool.
At a very deep level of the mind lie seeds of different kinds of mental tendencies which can bring various kinds of suffering. Your client’s vibrations contact the seeds of fear for the future that lie latent in depths of your mind. The vibrations of these seeds in you are exactly the same as those generated by your client. Your vibrations get tuned up with your client’s vibrations, stimulating your own fear and insecurity, your own seeds of misery. You may not even know that this is happening because it may not immediately show an effect. Slowly, over time, you will continue to be in contact with patients who are experiencing fear and gradually you will find that your problem is becoming magnified.
Unless you remove these seeds of misery from your mind, your job as a clinician will be harmful to your own mental and physical health. A lame person cannot support another lame person. A blind person cannot show the path to another blind person. How can you help others and protect yourself as well? The practice of Vipassana meditation provides an answer to this question.
Vipassana is the science of mind and matter: Whatever arises in the mind, be it fear, insecurity, passion or ego, does so in a very solidified, intensified way that tends to overpowers us. For example, somebody says something you do not like; someone has insulted you perhaps. You react with anger and become miserable. Whether you have harmed the other person or not by this anger you may not know, but you have certainly harmed yourself. The first victim of your anger is yourself: Although you were insulted only once, you continue to repeat this drama on the stage of your mind for long periods of time, thus strengthening the deep reaction patterns of anger.
When we react with anger at the mental level, immediately something starts happening at the physical level. There is a biochemical secretion which starts flowing in the bloodstream. This particular secretion, generated because of anger, is very unpleasant and because we feel unpleasant sensations we become even angrier. And as we become angrier, we generate more biochemical secretions: A vicious circle has started. Similarly passion or fear are associated with their own particular type of secretion. We ourselves are responsible for this flow, no one else. We multiply our own suffering every moment by reacting to these biochemicals, this flow within us. However, if we do not react, but rather observe, this vicious circle will lose its strength, become weaker and pass away. We have to understand this process in order to come out of it.
The entire psycho-physical structure which we keep referring to as “I, mine” is nothing but constantly changing vibrations. We cannot control it or make it non-changing. It is bound to change and does chang. It is just currents, vibrations of different frequencies, different wavelengths. This is the deeper truth of our physical structure. The direct experience of this reality has a profound effect.
We can smile at the reality of insecurity: “Look, it keeps changing—so what? Worry, anxiety—so what? This situation will change.” We observe vibrations as they change, or particular emotions as they arise and pass away. If we do not observe them objectively, they overpower us and multiply, making us a bundle of misery. It is not enough that this truth be accepted at the intellectual or devotional level. It has to be realized at the experiential level, and this is what Vipassana teaches.
When a student comes to a ten-day Vipassana course he or she is asked to explore what is happening within the framework of the body: What truth is manifesting itself? What is happening now?
One starts with something gross, but nevertheless real. The first thing one experiences is the flow of respiration— the breath coming in, the breath going out, naturally, effortlessly. We don’t make an effort to breathe in or breathe out. We don’t try to control the breath. The whole technique is to develop the faculty of observing reality from moment to moment, as it is, not as we would like it to be. So we try to observe the breath as it is. If it is deep, it is deep; we don’t try to make it shallow. If it is shallow, it is shallow; we don’t try to make it deep. If it is passing through one nostril, we accept this; we don’t try to direct it to the other. If both nostrils, then both nostrils. The flow of respiration is there, coming in, going out. We are observing; we do nothing.
It should be easy, and yet one finds it so difficult. One observes just one or two breaths and the mind wanders away. Only after a few minutes, does one realize, “Oh, I am here to observe my breath. What happened?” Again one starts—one or two breaths and again the mind wanders away. One feels irritated; “It should be such an easy task to just observe the breath. What kind of mind do I have? It can’t even observe the natural flow of the breath without running here and there.”
Then your guide will say, “No, no, don’t react. Just accept reality as it is. This is the truth of this moment: The mind has wandered away. Accept it smilingly.”
The old habit pattern of the mind is to react when something unwanted happens. And now you don’t want your mind to wander away; but it has wandered, and you react with aversion, anger. Whether you generate anger toward others or toward yourself there is no difference. Anger is anger and it will make you very miserable. We come out of this suffering by accepting the truth as it is: “My mind at this moment has wandered away.” The breath is still there, and your attention easily returns to it the moment that you accept that the mind has wandered away. You may observe a few breaths and again the mind wanders away. You realize, “Oh, look—it has wandered away.” And again you bring it back. One works like this for a few days and the mind starts settling down because one is learning to accept the truth as it is without reacting.
Respiration has a lot to do with the mind and the mental contents. As you observe the breath a thought may arise, maybe a thought of the past or the future, and you react with craving or aversion. Perhaps anger arises and you notice, “Look, anger has arisen.” As a result of this anger, the breath loses its normalcy and becomes slightly hard, slightly fast. When this particular anger subsides, you notice that the breath becomes normal again. So this breath is strongly connected to your mind and your mental impurities.
After the mind calms down a little, one starts experiencing something else: Every moment throughout the body, in every particle of the body, some electromagnetic reaction, some biochemical reaction is taking place. Usually the mind at the surface level is so gross that it can’t feel what is happening at deeper levels of the physical structure. But now with a concentrated mind one can feel these very subtle sensations, biochemical reactions, currents, vibrations, etc.
Because one starts with the attention at the entrance of the nostrils, one starts feeling sensations on this area first. They can manifest in a variety of ways; for example, as heat, perspiration, throbbing, pulsing, vibrating, tingling, tension, strain or many other things. You feel something or the other on this spot, and then you are also trained to observe this objectively. “Now there is heat—so what? It is heat. Throbbing, itching,”—various things—“Let me see how long they last.” You just observe objectively. On the fourth or fifth day, you may reach a stage where you feel sensations such as these throughout the body. You continue to move your attention from head to feet and from feet to head, observing these sensations on the body.
Just as it was with respiration, so it is with sensation. All the sensations on the body—the heat, the tension, the pressure, the vibration—all are connected with one’s mental impurities, the defilements which are the source of our suffering. When anger arises there is a reaction throughout the body. There is heat, perspiration, tension, palpitation. All these are related to our anger; similarly to our fear, our passion, our anxiety. Whatever arises in the mind manifests itself as a sensation on the body. It is this sensation on the body to which the mind reacts.
At the deepest level of the mind, are many hidden reaction patterns which are accumulations of misery from the past. They lie latent, and at any moment, due to some stimulation or the other, they can arise as unpleasant thoughts or sensations and overpower us, making us suffer again. In fact, every moment our minds generate some vibration or the other. This vibration may be positive or negative, but usually it is unwholesome because we remain ignorant of what is happening deep inside. Even though we do not want to, we harm ourselves because we react to the sensation on the body. We thus multiply our suffering. Because the entire atmosphere becomes influenced by these vibrations of negativity, we harm others as well. Every person is generating vibrations and influencing the atmosphere around, and in turn is getting influenced by the vibrations of other people.
So if you are dealing with a client who has a vibration in harmony with reaction patterns deep within you, this will trigger something at the depths of your mind, often overwhelming you. If you can free your mind of these patterns then the service you give will be wonderful, because your mind will be sound and healthy. You will smilingly face the vibrations being generated by others. Even if this triggers something in you, you will observe your reaction, float over it, but you will not sink. It will not overpower you. This means you are free from this particular misery.
All this has to be realized at the experiential level. Merely talking or discussing will not help. Discussions and talks can give us inspiration, some guidelines perhaps. They can show us a path but we must walk on the path. We have to make a journey inside to realize the truth, the truth of the interaction of mind and matter. But this has to be practiced. It requires a lot of practice.
There are many students of Vipassana who have the job of serving others. They may be counsellors, social workers, massage therapists—those practicing different ways of helping people. I advise these students to take a short break between one patient and the next. I advise them; wait a little—ten minutes or so—and relax. One can easily do this at the physical level, easing the tension accumulated by counselling someone. However, unknowingly you have absorbed the vibrations of that person deep inside you, and they make you a bundle of tension. Unless you first calm that reaction, you should not work with another person. By practicing Vipassana, and feeling sensations throughout the body, within ten minutes or so you will feel refreshed. Your battery will be charged again, and you will be ready to work with another patient.
A pure mind is a powerful mind. A pure mind is always full of infinite love; full of compassion, without a trace of passion. You expect nothing in return; you just feel like giving. This is the quality of a pure mind—full of love, full of compassion, full of sympathetic joy, full of equanimity. If you speak even two words with this kind of mind they will be very effective, because your mind has such a pure vibration. The patient will feel healed just by these few words spoken by you. However, if at the surface level you speak very healing, counselling words, and deep inside you are agitated, then the vibration that goes with your words will not have that positive effect.
So be a good healer; and to be a good healer first heal yourself. Go deep inside. Calm your mind, purify your mind. See that it is full of pure love, expecting nothing in return, full of compassion, full of sympathetic joy, and full of equanimity. You will find that all the hazards of your work disappear; all the pitfalls are gone. You will become strong, not a lame person helping another lame person, not a blind person showing a path to another blind person.
Vipassana will help you to become a good human being, a healthy human being, full of harmony, full of peace, full of tranquillity, with a sound mind and sound body. With a sound mind you can help others better and become a really effective social servant. May all of you become good social servants.
May you all be peaceful, be happy, be liberated.
A question and answer session after Goenkaji’s address included the following two questions:
I feel that our emotions can be teachers, that we can learn from our anger or our sadness. What is the view of Vipassana on this?
Emotions by themselves do not make us miserable. If we can learn how to observe our emotions, we come out of misery and therefore learn something from them. But if we allow ourselves to be overpowered by these emotions then we suffer. One thing Vipassana teaches us is this: Emotion will arise; let me observe it objectively. “Look, this is an emotion: anger or sadness,” or this or that. “Along with this let me observe what sensation is on the body. Ah, this sensation is impermanent. Let me see how long it lasts.” This is how we come out of our suffering.
Vipassana focuses on the internal reality. That’s fine, but what about the external reality that really causes a great deal of suffering? What use is Vipassana in dealing with the real pain of the world?
Understand, Vipassana is not an escape from the problems of day-to-day life. One comes to a course for ten days to learn the technique of Vipassana and gain strength to face the problems of the outside world—just as you might go to a hospital to become physically healthy, and then leave to live healthily in the world. Similarly, when you learn to use this technique of observing the reality inside, you can face the problems outside more easily. It is not that by the practice of Vipassana all the problems will disappear; but rather, your ability to face them will improve.
The problems of the outside world are created by individuals living in the darkness of ignorance. Just as lighting one lamp will dispel the darkness around it, similarly, one person practicing Vipassana will affect society. If more people practice Vipassana, slowly this will start having a positive influence in the world. Even if only this one person is practicing Vipassana at least he or she will be able to face the problems and find solutions. And those solutions will be healthy solutions.
(Courtesy: International Vipassana Newsletter, September 1992 issue)

Saturday, June 6, 2020

Dhamma - S.N. Goenka



1. What is Dhamma ?

What one's mind contains, at this moment, is Dhamma. Dhamma is everything there is.

2. What is the relevance of Dhamma to a person on the street, whose stomach is empty?

A large number of people living in slums come to Vipassana courses and find it very helpful. Their stomachs are empty, but their minds also are so agitated. With Vipassana, they learn how to be calm and equanimous. Then they can face their problems. It is noticed their lives improve. They come out of addictions to alcohol, gambling etc. Dhamma is helpful to everyone, rich or poor.

3. How can a truly Dhammic person face this adhammic world?

Don't try to change the adhammic world. Try to change the adhamma in yourself - the way in which you are reacting and making yourself miserable. For instance, when somebody is abusing you, understand that this person is miserable. It is the problem of that person. Why make it your problem? Why start generating anger and making yourself miserable? Doing that means you are not your own master, you are that person's slave; whenever that person wants to, he can make you miserable. Be your own master. Then you can live a Dhammic life, in spite of all the adhammic situations all around.

4. How do you equate religion and Dhamma?

If religion is taken in a sectarian sense, like Hindu religion or Muslim religion or Buddhist religion and so on, then it is totally against Dhamma. But if religion is taken as the law of nature, the universal law of nature, then it is the same as Dhamma.

5. Do you believe the Dhamma can guide you?

Yes. Certainly, the Dhamma starts guiding you. As the mind gets more and more purified, your pannya, your own experiential wisdom will get stronger and stronger. When any problem comes in the world, in your life, then you just go a little deep inside and you get the answer yourself. So this becomes your guide. You should not depend on anyone else. You depend on yourself, and depend on Dhamma.

S.N. Goenka

Friday, June 5, 2020

Qualities-of-the-Triple-Gem

Dhamma taught by a Buddha has the following attributes:

It is well-explained (svakkhato).

It can be experienced in this life (sanditthiko).

It gives immediate results (akaliko).

It invites people to come and see (ehi-passiko).

Every successive step takes one towards the final goal of full liberation (opanayiko).

It is to be experienced by each person of average intelligence, for oneself (paccattam veditabbo vinnuhiti).

Dhamma is not sectarian. It is called by several other names:

Eternal dhamma (esa dhammo sanantano); noble eightfold path (ariyo atthangiko maggo); true dhamma (saddhammo); pure dhamma (visuddhi-dhammo); dhamma leading to full liberation (vimutti-dhammo); noble dhamma (ariyo-dhammo); stainless dhamma (sukka dhammo); foremost dhamma (aggo dhammo); ancient dhamma (purano dhammo)

Ref: http://www.vridhamma.org/Qualities-of-the-Triple-Gem


Tuesday, June 2, 2020

Question Answer : Kalyanmitra S.N.Goenka

1) Isn't suffering a natural part of life? Why should we try to escape from it?

SNG : We have become so involved in suffering that to be free from it seems unnatural. But when you experience the real happiness of mental purity, you will know that this is the natural state of the mind.

2) Can't the experience of suffering ennoble people and help them to grow in character?

SNG: Yes. In fact, this technique deliberately uses suffering as a tool to make one a noble person. But it will work only if you learn how to observe suffering objectively. If you are attached to your suffering, the experience will not ennoble you; you will always remain miserable.

3) Isn't taking control of our actions a kind of suppression?

SNG: No. You learn just to observe objectively whatever is happening. If someone is angry and tries to hide his anger, to swallow it, then, yes, it's suppression. But by observing the anger, you will find that automatically it passes away. You become free from the anger if you learn how to observe it objectively.

4) If we keep observing ourselves, how can we live life in any natural way? We'll be so busy watching ourselves that we can't act freely or spontaneously.

SNG: That is not what people find after completing a meditation course. Here you learn a mental training that will give you the ability to observe yourself in daily life whenever you need to do so. Not that you will keep practising with closed eyes all day throughout your life, but just as the strength you gain by physical exercise helps you in daily life, so this mental exercise will also strengthen you. What you call “free, spontaneous action” is really blind reaction, which is always harmful. By learning to observe yourself, you will find that whenever a difficult situation arises in life, you can keep the balance of your mind. With that balance you can choose freely how to act. You will take real action, which is always positive, always beneficial for you and for all others.

(Art of Living :Vipassana, VRI,  Igatpuri)

http://www.vridhamma.org/

https://www.dhamma.org/en/courses/search

Sunday, May 31, 2020

उद्बबोधन - पत्र

(भारत आकर बसे परिवार के अनेक शिवरोंन्मुख विपस्सी साधकों को लिखा गया एक धर्मपत्र ), रंगून, 4-2-1969.
प्रिय साधक एवं साधिकायो!
धर्मं धारण करो!
साधना में कोई कठिनाई हुई हो तो उससे घबराना नहीं चाहिए । संस्कारों का मेल छंटने में कठिनाई तो होती ही है, फोड़े की मवाद निकलने की तरह उसे धेर्यपूर्वक सह लेने में ही साधना की सिद्धि है । यह पत्र पहुंचने तक जो शिविर में बैठे ही हों, उनके लाभार्थ विपश्यना पर कुछ कहू ।
यह जो सिर से पांव तक सारे शरीर में , अंग-प्नत्यंग में, तुम्हें किसी न किसी संवेदना की अनुभूति हो रहीं है और इस अनुभूति को तुम इसके अनित्य रूप में देख-पहचान रहै हो - यहीं विपश्यना है । जितनी देर इस अनित्यता का दर्शन कर रहे हो, उतनी देर सत्य के साथ हो l सत्य बडा शक्तिशाली है । जहाँ सत्य है वहाँ विद्या का बल है, अविद्या का क्षय है । जहाँ सत्य है वहीं ज्ञान है, बोधि है, प्रकाश है, निर्वाण है । और जहाँ ये सब है वहां अज्ञानता, मूढता, अंधकार और मोह कैसे रह सकते हैं भला? राग और द्वेष कैसे रह सकत्ते है भला? और ये ही तो चित्त के मैल हैं । ये ही फोडे है, ये ही फोडे की पीप है । इनके निकल जाने में ही चित्त की शांति है, चित्त की विशुद्धि है । विपश्यना का मार्ग विशुद्धि का मार्ग है, जहाँ चित की अशुद्धियां दूर होती है । विपश्यना का मार्ग निर्वाण का मार्ग है, जहाँ राग, द्वेष और मोह की अग्नियों का निर्वाण होता है, यानी,वे बुझती है। इनके बुझने का नाम ही परम शांति है । विपश्यना हमें इसी परम शांति की ले जाती है। जितनी-जितनी आग बुझ गयी, उतनी-उतनी शांति हुई । जितना-जितना मैल छंट गया, उतनी-उतनी विशुद्धि हुई । इसलिए साधना के लिए यह जो अनमोल अवसर मिला है इसका पूरा लाभ उठाना चाहिए ।
सदृगुरु ने हमें साबुन दिया है, पानी दिया है और चित्त रूपी मैला कपडा हमारे पास है । अब इस साबुन-पानी का प्रयोग करके चित्त का मैल निकालने का काम हमारा है। हम काम ही नहीं करेंगे तो मैल कैसे छंटेगा और जितना काम करेगे उतना ही तो छंटेगा । और फिर मैल अधिक होगा तो सारा मैल छंटेने में समय लगेगा और कम होगा तो काम जल्द हो जायगा। सबका मैल एक जैसा नहीं है और एक जितना भी नहीं है। किसी का कैसा है, किसी का कैसा । किसी का कितना है, किसी का कितना । इसलिए हर एक साधक को अपने-अपने मैल साफ क?रने पर ही ध्यान रखना चाहिए, औरों की और ध्यान नहीं देना चाहिए । परिश्रम करके जितना मैल छांट लोगे, उतना हल्के हो जाओगे । मैल छांटने के लिए ही तो विपश्यना है । और विपश्यना कया है!
प्रतिक्षण सचेत रहो, जागरुक रहो, सचेष्ट रहो, सावधान रहो और देखते रहो कि जो कुछ अनुभव हो रहा है, यह प्रकृति का अनित्य स्वभाव ही अनुभव हो रहा है । इस इंद्रिय जगत के खेल में कहीं कुछ भी स्थायी नहीं है, ध्रूव नहीं है, नित्य नहीं है। सभी कुछ अनित्य है, क्षणभंगुर है, अध्रूव है, अशाश्वत है और जो अनित्य है, क्षणभंगुर है यह सुखदायी कैसे हो सकता है? वह तो सचमुच दुखस्वरूप है l ऐसे अनित्य एवं दुखमय तन और मन के प्रति मैं और मेरे' का अहंभाव रखना नितांत मूर्खता है । यह तो अनात्म है । इस तरह अनित्य, दुख: और अनात्म का साक्षात्कार करते हुए उस इन्द्रियातीत अवस्था तक पहुँचना है जो निर्वाण की अवस्था है; जो नित्य, धुव् और शाश्वत है । परंतु उस नित्य, ध्रुव और शाश्वत अवस्था की कामना-कल्पना नहीं करनी है। ऐसा करने लग जाओगे तो विपश्यना छुट जायगी। अंत: विपश्यना में लगे रहो, अनित्य के ही दर्शन करते रहे । जो मार्ग बताया है उस पर दृढ़तापूर्वक आरूढ रहो, भटक मत जाओं ।
कल्याण निश्चित है, मंगल निश्चित है, स्वस्ति निश्चित है ।
आचार्य श्री स.ना. गोयन्का

ब्रह्मविहार


🌻 (1)मैत्री ब्रह्मविहार

यानि प्राणी दृश्य हों या अदृश्य, समीप के हों या दूर के, छोटे हों या बड़े, मनुष्य हों या मनुष्येतर; सभी प्राणियो के प्रति मंगल मैत्री का भाव।

उनके सुखी, स्वस्थ और दुःख मुक्त होने की, बन्धन मुक्त होने की मंगल कामना।

🌷 (2)करुणा ब्रह्मविहार

यानि किसी भी प्राणी को दुखी देखकर उसके प्रति करुणा जागे।

🌺 (3)मुदिता ब्रह्मविहार

यानि किसी भी प्राणी को सुखी देखकर, मुदित देखकर, उसके प्रति ईर्ष्या न जगाकर, उसके मोद में भागीदार बने।अपने मन को मुदिता के भाव से भरे।

🍁 (4)उपेक्षा ब्रह्मविहार

यानि किसी के द्वारा दुर्व्यवहार किये जाने पर भी, उसके प्रति द्वेष न जगाकर चित्त की समता कायम रखते हुए, उपेक्षा का जीवन जीयें।

🌸सद्ग्रहस्थ इन चारो ब्रह्मविहारो का अभ्यास करते हुए अपना उत्तम मंगल साध लेता है।

Saturday, May 30, 2020

How to Walk, How to eat(By Pujya Guruji)


In a one month course with Sayaji U Ba Khin in Burma, I experienced a very deep stage of bhanga, in which my entire body seemed to have dissolved into a mass of vibrations constantly arising and passing away.
Even if by chance I happened to look at someone, I saw only the outline of that person and within it a kind of blinking or oscillation.
🌹One day during this course my teacher said to me, "Come, Goenka, I shall teach you how to walk."
Now What was this? I was not a baby crawling on all fours; I was a man of mature years!
Sayaji explained, "walk as you do normally, neither quickly nor slowly. As you walk be aware of each movement of your body, and also be aware of what is happening within you."
I had been practising that in ten day couses, but it was different now. I tried it and found that while walking I could experience the flow of vibrations, the subtle reality within.
At a superficial level I was aware of my walking, and at a deeper level I was aware of the unceasing process of change within myself-- just a mass of atoms moving about, rather than a solid body.
💐"Now come, "said Sayaji, I shall teach you how to eat."
By this time I had understood that, though I was not an infant to be spoon-fed, there was something I needed to learn.
We went to the dining room and a tray of food was placed before me, each item neatly arranged in a separate dish.
Make small peaces of all the food, and put it in a bowl, said Sayaji.
Now mix it all together- solid or liquid, sweet or sour, combine it all. This is the way that monks are supposed to eat I did as he said and mixed all the food together in a bowl.
Now remain in a deep bhanga, said Sayaji. Keep your eyes closed and continue. Take a morsel of food with your fingers, and feel sensations. I did this, and as I touched the food I felt strong vibrations in my fingertips.
"Move your hands to your mouth feeling sensations."
I did so, feeling strong vibrations. "Place the food in your mouth and feel sensations." I did so, feeling vibrations on my lips, my tongue and gums.
"Chew the food and swallow it feeling sensations." I did so, feeling vibrations throughout my mouth and throat.
The taste of the food became immaterial. Instead I experienced it only as vibrations entering the vibrations of my body.
🌸Having finished the meal in this special Vipassana way, I was asked to take rest. I went and lay down on my bed. For quite some time I kept feeling distinct movement and vibration in the stomach and intestines.
After that course all my food preferences disappeared. I had been very fond of some of the more spicy Indian preparations Now I eat whatever is placed before me, but if there is a choice my hand goes automatically to the simpler dish.
I had indeed learned how to eat: not to satisfy cravings but to provide the nourishment this body needs to carry on its task.
Thanks to Sayagyi, Thanks to Dhamma.
🙏🏻🙏🏻🙏🏻
Source: Sayagyi U Ba Khin Journal: A Collection Commemorating the Teaching of Sayagyi U Ba Khin

धम्मपद यमकवग्गो

श्रावस्ती
चक्खुपाल (थेर)
मनोपुब्वङ्गमा धम्मा-मनोसेट्ठा मनोमया ।
मनसा चे पदुट्ठेन-भासति वा करोति वा ।
ततो न दुक्खमन्वेति-चक्कं"व वहतो पदं ।।
मनको धर्म हो जुनसुकै काममा पनि अगुवा हुनु, औ यो मन मुख्य भएर जताततै पुगेको हुन्छ । त्यसकारण अशुद्ध मन भएर कसैले बोल्यो वा गर्यो भने बयलको पछि पछि गाडाको पांग्रा आए झैं दुःख पछि लागेर आउँछ ।।१।।
श्रावस्ती
मट्टकुण्डली
मनोपुब्वङ्गमा धम्मा- मनोसेट्ठा मनोमया ।
मनसा चे पसन्नेन-भासति वा करोति वा ।
ततो नं सुखमन्वेति-छाया' व अनपायिनी ।।
मनको धर्म-जुनसुकै काममा पनि अगुवा हुनु, औ यो मन मुख्य भएर जताततै पुगेको हुन्छ । त्यसकारण शुद्ध मन लिएर सैले बोल्यो वा गर्यो भने आफ्नो पीछा न छोड्ने छायाँ आए झैं सुख पछि पछि लागेर आउँछ ।।२।।
श्रावस्ती, जेतवन
थुल्लतिस्स थेर
अक्कोच्छि मं अवधि मं-अजिनि मं अहासि मे ।
ये च तं उपनय्हन्ति-वेरं तेसं न सम्मति ।।
'मलाई गाली गर्यो' 'मलाई पिट्यो' 'मलाई हर्राईदियो' औ 'मेरो लगिदियो' इत्यादि भनेर जसले आफ्नो मनमा बराबर विचार गर्छ, त्यसको मनमा कहिले पनि वैरभाव शान्त हुनेछैन ।।३।।
अक्कोच्छि मं अवधि मं-अजिनि मं अहासि मे ।
ये तं न उपनय्हन्ति-वेरं तेसूपसम्मति ।।
'मलाई गाली गर्यो' 'मलाई पिट्यो' 'मलाई हर्राईदियो' औ 'मेरो लगिदियो' इत्यादि भनेर जसले आफ्नो मनमा बराबर विचार गर्दैन, त्यसको मनमा वैरभाव शान्त हुन्छ ।।४।।
श्रावस्ती, जेतवन
काली यक्षिणी
नहि वेरेन वेरानि-सम्मन्तीध कुदाचनं ।
अवेरेन च सम्मन्ति-एस धम्मो सनन्तनो ।
रीसले वैरभाव शान्त हुने छैन, प्रेमभावले मात्र वैरभाव शान्त हुन सक्छ, यही सनातनदेखि चलिआएको धर्म हो ।।५।।
श्रावस्ती, जेतवन
कोसम्बिक भिक्षु
परे च न विजानन्ति-मय'मेत्थ यमामसे ।
ये च तत्थ विजानन्ति-ततो सम्मन्ति मेधगा ।।
मूर्खले मात्र हामीले एकदिन अवश्य मर्नु पर्छ भनी विचार गर्दैन, 'हामी मर्ने छौं' भनी विचार गर्ने बित्तिकै कलह शान्त हुन्छ ।।६।।
श्रावस्ती, जेतवन
चुल्लकाल महाकाल
सुभानुपस्सिं विहरन्तं इन्द्रियेसु असंवुतं ।
भोजनम्हि च अमत्तञ्ञुं-कुसीतं हीनवीरियं
तं वे पसहति मारो-वातो रुक्खं'व दुब्वलं ।।
इन्द्रिय संयम नगरी राम्रो देख्ने, भोजनमा मात्रा नजान्ने, वीर्यहीन हुने यस्तालाई, बतासले दुर्वल रुख ढाले झैं मारले बिताउँछ ।।७।।
असुभानुपस्सिं विहरन्तं-इन्द्रियेसु सुसंबुतं ।
भोजनम्हि च मत्तञ्ञुं-सद्धं आरद्धवीरियं ।
तं वे नप्पसहति मारो-वातो सेलं'व पब्वतं ।।
इन्द्रिय संयम गरी राम्रो नदेख्ने, भोजनमा मात्रा ज्ञान राख्ने र श्रद्धा वीर्य कायम राखेका यस्तालाई पर्वतको ढुङ्गा बतासले हल्लाउन नसके झैं मारले डगाउन सक्तैन ।।८।।
श्रावस्ती, जेतवन
देवदत्त
अनिक्कसाबो कासावं-यो वत्थं परिदहेस्सति ।
अपेतो दमसच्चेन-न सो कासावम'रहति ।।
इन्द्रिय दमन नगरी सत्यज्ञानबाट दूर भई आफनो मनलाई स्वच्छ नराख्नेलाई गेरुवावस्त्र सुहाउँदैन ।।९।।
१०
यो च वन्तकसाव'स्स-सीलेसु सुसमाहितो ।
उपेतो दमसच्चेन-स वे कासावम'रहति ।।
क्लेशलाई दूरगरी आफनो मन स्वच्छ राखी शीलवान भई इन्द्रिय दमन गरेर सत्यज्ञानमा बस्नेलाई गेरुवावस्त्र सुहाउँछ ।।१०।।
११
राजगृह, वेणुवन
अग्रश्रावक
असारे सारमतिनो-सारे चा'सारदस्सिनो ।
ते सारं ना'धिगच्छन्ति-मिच्छासड्ढप्प गोचरा ।।
असारलाई सार, सारलाई असार ठान्ने यस्तो मिथ्यादृष्टि हुने व्यक्तिलाई सार पदार्थको लाभ हुँदैन ।।११।।
१२
सारञ्च सारतो ञत्वा-असारञ्च असारतो ।
ते सारं अधिगच्छन्ति-सम्मासड्ढप्प गोचरा ।।
सारलाई सार, असारलाई असार देखेर सम्यग्दृष्टि हुने यस्ता व्यक्तिलाई सार पदार्थको लाभ हुन्छ ।।१२।।
१३
श्रावस्ती, जेतवन
नन्दस्थवीर
यथा'गारं दुच्छन्नं वुट्ठी समतिविज्झति ।
एवं अभावितं चित्तं-रागो समतिविज्झति ।।
नराम्रोसित छाएको छानाबाट पानी चुहे झैं राम्रोसँग नबाँधेको चित्तमा राग चुहिन्छ ।।१३।।
१४
यथा'गारं सुच्छन्नं वुट्ठी न समतिविज्झति ।
एवं सुभावितं. चित्तं रागो न समतिविज्झति ।।
जस्तो राम्रोसँग छाएको छानाबाट पानी चुहिँदैन त्यस्तै शुद्ध चित्तमा राग चुहिँदैन ।।१४।।
१५
राजगृह, वेणुवन
चुन्द सूकरिक
इध सोचति पेच्च सोचति
पापकारी उभयत्थ सोचति ।
सो सोचति सो विहञ्ञति
दिस्वा कम्मकिलिट्ठम'त्तनो ।।
पापी व्यक्तिलाई इहलोक परलोक दुवै लोकमा शोक हुन्छ, आफूले गरेको खराब कामलाई देखेर आफै आफ दुःखी र पीडित हुन्छ ।।१५।।
१६
श्रावस्ती, जेतवन
धम्मिक उपासक
इध मोदति पेच्च मोदति ।
कतपुञ्ञो उभयत्थ मोदति ।
सो मोदति सो पमोदति
दिस्वा कम्मविसुद्धि'मत्तनो ।।
पुण्यवान् व्यक्ति इहलोक परलोक दुवै लोकमा सुखी हुन्छ, आफूले गरेको राम्रो कामलाई देखेर आफै सुखी हुन्छ, प्रमुदित हुन्छ ।।१६।।
१७
श्रावस्ती, जेतवन
देवदत्त
इध तप्पति पेच्च तप्पति
पापकारी उभयत्थ तप्पति ।
पापं मे कतन्ति तप्पति
भीय्यो तप्पति दुग्गतिं गतो ।।
पापी व्यक्तिलाई यहाँ पनि वहाँ पनि दुबै लोकमा ताप हुन्छ, मेलै पाप गरे भन्ने विचारले मनमा सन्ताप हुन्छ, दुर्गतिमा पुगेर उसलाई झन बढी ताप हुन्छ ।।१७।।
१८
श्रावस्ती, जेतवन
सुमनादेवी
इध नन्दति पेच्च नन्दति
कतपुञ्ञो उभयत्थ नन्दति ।
पुञ्ञं मे कतन्ति नन्दति
भीय्यो नन्दति सुग्गतिं गतो ।।
पुण्यवान् व्यक्तिलाई इहलोक परलोक दुवैमा आनन्दको अनुभव हुन्छ, मैलेपुण्य गरे भनी आनन्दित हुन्छ, परलोकमा पुगेर यहाँभन्दा पनि धेरै आनन्द प्राप्ति हुन्छ ।।१८।।
१९
श्रावस्ती, जेतवन
दुर्इ जना साथी
बहुम्पि चे सहितं भासमानो
न तक्करो होति नरो पमत्तो ।
गोपो व गावो गणयं परेसं
न भागवा सामञ्ञस्स होति ।।
जस्तो अर्काको गाई चराउने गोठालाले दूध प्राप्त गर्न सक्तैन, त्यस्तै धेरै धर्मको कुरा गर्न जानेर पनि तदनुसार आचरण नगर्नेलाई श्रमणत्व फल प्राप्त हुन सक्तैन ।।१९।।
२०
अप्पम्पि चे सहितं भासमानो
धम्मस्स होति अनुधम्मचारी ।
रागञ्च दोसञ्च पहाय मोहं
सम्मप्पजानो सुविमुत्तचित्तो ।
अनुपादियानो इध वा हुरं वा
स भागवा सामञ्ञस्स होति ।।
अलिकता मात्र धर्मको कुरा गर्न सक्ने भएता पनि धर्मानुसार आचरण गर्ने, राग, द्वेष र मोहलाई हर्टाई राम्रो धर्मावबोध भएर आफ्नो चित्तलाई क्लेशबाट हर्टाई, इहलोक र परलोकको चिन्ता नगर्नेलाई श्रमणत्व फल प्राप्तहुनसक्तछ ।।२०।